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प्रश्नोत्तरभावकाचार बधितक्रादिकं सर्व त्यजेदूध्वं दिनद्वयात् । सुधी: पापादिभीतस्तु भृतं द्वघेकेन्द्रियाविभिः ॥१०९ सर्वाशनं न च ग्राह्यं दिनद्वययुतं नरैः । एकद्वित्र्यक्षसंयुक्तमेनोभीतैः सुखाप्तये ॥११० स्वस्वादुपरिसंत्यक्तं दुर्गन्धादिसमन्वितम् । अन्नं तद्वह्निसञ्जातं त्यजाखामिदाशुभम् ॥१११ अत्यानकं प्रखादन्ति जिह्वया दण्डिता हि ते । नीचजातिसमा ज्ञेयास्ते कोटामिषभक्षणात् ॥११२ अत्यानकं नचादेयं सुहृत् प्राणात्ययेऽपि भो। पुष्पिकाकीटसंछन्नं श्वभ्रतिर्यग्गतिप्रदम् ॥११३ भक्षयन्ति शठा ये भो अन्नं तकादिकं स्थितम् । दिनद्वयेन कोटादिखादनानोचनसमाः ॥११४ ये जिह्वालम्पटा मूढा अभक्ष्यं भक्षयन्ति च । तेऽमुत्र पापभारेण मज्जन्ति नरकाणवे ॥११५ वरं विषाशनं नृणां वारकप्राणनाशनम् । न भक्षणं भवानन्तजन्मदुःखविधायकम् ॥११६ इति मत्वा फलं त्याज्यमभक्ष्यं धावकोत्तमैः । धर्मव्रताविशुवर्थममेध्यमिव दूरतः ॥११७ अनिष्टं यद्भवेत्स्वस्यानुपसेव्यं हि वस्तु यत् । उष्ट्री दुग्धादिकं तच्च सर्व त्यक्त्वा व्रतं कुरु ॥११८ यमश्च नियमः प्रोक्तो भोगादीनां गणाधिपः । यावज्जीवेतरेणेव गृहस्थस्य सुखाप्तये ॥११९ यावज्जीवं त्यजेद्यस्तु किन्चिद् वस्त्वादिकं बुधः । सदोषं निर्दोषं वा भजेन्नितिवं यमम् ॥१२० भोगादिकं त्यजेद्यस्तु मासवर्षादिसंख्यया। धर्माय नियमं सोऽपि श्रयेन्नाकगृहाङ्गणम् ॥१२१ डरनेवाले बुद्धिमानोंको दो दिनसे ऊपरके दही और छाछका त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि दो दिनके बाद उसमें अनेक एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय आदि जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥१०९॥ पापोंसे डरनेवाले मनुष्योंको सुख प्राप्त करनेके लिये दो दिनके ऊपरका सब प्रकारका भोजन छोड़ देना चाहिये क्योंकि उसमें दो दिनके बाद एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय आदि जीव उत्पन्न हो जाते हैं ॥११०।। अग्नि पर पका हुआ जो अन्न दुर्गन्धयुक्त हो गया हो, जिसका स्वाद बिगड़ गया हो तो अभक्ष्य और अशुभ समझकर उसे भी छोड़ देना चाहिये ॥१११।। जो जिह्वा इन्द्रियसे पीडित होकर अचार खाते हैं वे उसमें पड़नेवाले अनेक कीड़ोंका मांस खानेके कारण नीच लोगोंके समान समझे जाते. हैं ॥११२॥ हे मित्र ! प्राणोंका नाश होनेपर भी अचार नहीं खाना चाहिये और जिस पर सफेदी आ जाती है ऐसी फूली हुई चीज भी अनेक कोड़ोंसे भरी हुई होती है इसलिये वह भी नहीं खानी चाहिये, क्योंकि ऐसे पदार्थोंका खाना भी नरक और तियंचगतिके दुःखोंका कारण है ॥११३॥
जो मूर्ख छाछमें अन्नको दो दो दिन रखकर (रावरी वा महेरी बनाकर) खाते हैं वे अनेक कीड़ोंको खा जानेके कारण नीचोंके समान समझे जाते हैं ॥११४।। जो जिह्वालम्पटी मूर्ख अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करते हैं वे अपार पाप-भारके कारण परलोकमें नरकरूपी महासागरमें डूबते हैं ॥११५॥ मनुष्योंको विष मिला भोजन खा लेना अच्छा, एक प्राणीको मार डालना अच्छा परन्तु अनन्त जन्मोंतक दुःख देनेवाले अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण करना अच्छा नहीं ॥११६।। यही समझकर श्रावकोंको धर्म और व्रतोंको शुद्ध रखनेके लिये अभक्ष्य फलोंका विष्टाके समान दूरसे ही त्याग कर देना चाहिये ॥११७॥ जो पदार्थ अपने लिये अनिष्ट हों अथवा उँटनीका दूध आदि अनुपसेव्य (जिसे सद्गृहस्थ सेवन न करते हों) हों ऐसे समस्त पदार्थोंका त्यागकर व्रत धारण करना चाहिये ॥११८।। गणवर देवोंने गृहस्थोंको सुख पहुंचानेके लिये भोगोपभोगोंका त्याग करने के लिये यम और नियम बतलाये हैं। भोगोपभोगोंका जन्म पर्यन्त त्याग करना यम है और कुछ दिनके लिये त्याग करना नियम है ॥११९॥ जो सदोष वा निर्दोष पदार्थ जन्म पर्यन्तके लिये गाग किया जाता है वह बुद्धिमानोंको मोक्ष देनेवाला है ॥१२०॥ तथा धर्म पालन करनेके लिये जो भोगोपभोग पदार्थों का महीना पन्द्रह दिन दो महीना चार महीना वर्ष दिन बादिकी संख्या नियन
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