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________________ ३३६ श्रावकाचार-संग्रह सर्वपेण समं कन्दं ये खादन्ति शठा ध्र ुवम् । दुर्गात यान्ति तेऽमुत्रानन्तजीवप्रभक्षणात् ॥९६ रोगादिपीडित यत्तु अति कन्दं सुखाप्तये । स रोगभाजनं भूत्वा श्वभ्रकूपे पतिष्यति ॥९७ तिलमात्रसमे कन्वे चानन्तजीव संस्थितिः । तस्य भक्षणतो भुक्ताः सर्वे जीवाः कुदृष्टिभिः ॥९८ योऽनन्तजीवसंयुक्तं ज्ञात्वा कन्दं च खादति । निकृष्टस्तस्य कि पापं का गतिर्वा न वेद्म्यहम् ॥९९ अतस्त्याज्यं नरैरेतत्कन्दमूलकदम्बम् | हालाहलमिवानन्तं जीवराशिसमुद्भवम् ॥१०० निम्बादिकुसुमं सर्वं सूक्ष्मसत्त्वसमाकुलम् । साङ्गिसम्भूतं मित्र ! सर्वपापाकरं त्यज ॥१०१ पत्रशाकं त्यजेद्धीमान् पुष्पं कोटसमन्वितम् । ज्ञात्वा पुण्याय जिह्वादिदमनाया शुभप्रदम् ॥१०२ कीटाढ्यं विल्वजम्ब्वादिबदरीनां फलं बुधः । त्यजेत्पापाकरं सर्वजीवरक्षादिहेतवे ॥१०३ वृन्ताकं हि कलिङ्ग वा कूष्माण्डादिफलं तथा । अन्यद्वा दूषितं लोके शास्त्रे वा वर्जयेत्सुधीः ॥ १०४ अज्ञातादिफलं दोषादोषसंशयदं त्यजेत् । धर्माय पापसंत्रस्तो वरं वा पुण्यधीः पुमान् ॥१०५ सूक्ष्मजीवभृतं श्वभ्रे नवनीतं कुदुःखदम् । दोषाकरं महानिन्द्यं जहि त्वं पापहानये ॥१०६ पुङ्गीफलादिसर्वं चाभग्नं जीवसमन्वितम् । अभक्ष्य परिहारार्थं त्याज्यं नित्यं विवेकिभिः ॥ १०७ अभग्नं कीटसंयुक्तं फलं भुङ्क्ते हि योऽधमः । आमिषाशीसमो ज्ञेयः सोऽपि कीटादिभक्षणात् ॥ १०८ करनेके कारण मरकर परलोकमें अनेक दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करते हैं || ९६ || जो रोगी सुख प्राप्त करनेके लिये कंदमूलका भक्षण करता है वह अनेक प्रकारके रोगोंसे पीड़ित होकर नरकरूपी कूएमें पड़ता है ||९७|| तिलके समान जरासे कंदमूलमें भी अनन्त जीवोंका निवास रहता है इसलिये जो मिथ्यादृष्टि उस कंदमूलका भक्षण करते हैं वे उन सब जीवोंको खा जाते हैं ||१८|| कंदमूल अनन्त जीवोंका पिण्ड है यह समझकर भी जो उसे भक्षण करते हैं उन्हें कौनसे पाप लगेंगे अथवा उनकी कौनसी गति होगी इस बातको हम जान भी नहीं सकते ||९९ || इसलिये मनुष्योंको विषके समान सब तरहके कंदमूलका त्याग कर देना चाहिये क्योंकि उसमें अनन्त जीवोंकी राशि सदा उत्पन्न होती रहती है || १०० || नीम आदिके फूल भी अनेक सूक्ष्म जीवोंसे भरे हुए होते हैं तथा उनमें त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं उनके खानेसे सब तरहके पाप होते हैं इसलिये हे मित्र ! इनका शीघ्र ही त्याग कर देना चाहिये ॥ १०१ ॥ बुद्धिमानोंको पुण्य सम्पादन करने जिह्वा आदि इन्द्रियों को दमन करनेके लिये पाप उत्पन्न करनेवाले पत्तोंवाले शाक व कीड़ोंसे भरे हुए पुष्प आदि सबको जानकर त्याग कर देना चाहिये ॥ १०२ ॥ विद्वानोंको जीवों की रक्षा करनेके लिये पाप उत्पन्न करनेवाले वेलकी गिरी जामुन छोटे बेर आदि सबका त्याग कर देना चाहिये ||१०३ || बैंगन, तरबूज, कुंहड़ा (पेठा या काशीफल) तथा और भी जो कुछ लोकमें वा शास्त्रों में सदोष कहे गये हैं उन सबका त्याग कर देना चाहिये || १०४ || पुण्यवान् मनुष्यों को पापोंसे डरनेके लिये और धर्म पालन करनेके लिये जिनमें दोष-अदोषका सन्देह हो ऐसे अजान फलोंका भी त्याग कर देना चाहिये || १०५ || हे भव्य ! पापोंको दूर करनेके लिये मक्खनका भी त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि मक्खन भो अनेक सूक्ष्म जीवोंसे भरा हुआ है, महा निन्द्य है अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाला है और नरकके दुःख देनेवाला है || १०६ || बिना कतरी हुई साबूत सुपारी छुहारे आदि फलों में भी जीव रहते हैं इसलिये अभक्ष्य पदार्थोंका त्याग करने के लिये विवेकी पुरुषोंको ऐसे फलोंका भी सदा के लिये त्याग कर देना चाहिये || १०७ || जो नीच कीड़ोंसे भरे हुए साबूत फलोंको खाता है वह अनेक कीड़ोंको खा जानेके कारण मांस भक्षीके समान समझा जाता है || १०८ || पापोंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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