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________________ प्रश्नोत्तरत्रावकाचार ३३५ प्रहासभण्डिमोपेतं वक्ति दुर्वचनं हि यः। दुष्टकार्यक्रियायुक्तं कौत्कुच्यं तस्य जायते ॥८२ घाष्टयं बहुप्रलापित्वं ब्रूते यः कारणं विना । वचनं तस्य लोकेस्मिन् मौखयतिक्रमो भवेत् ॥८३ कार्य हिताहितं किञ्चिद्योऽविचार्य करोति ना। लभेत सोऽसमीक्ष्याधिकरणं दुःखपापदम् ॥८४ भोगोपभोगसंख्याया योऽधिकं च करोत्यधीः । भोगादिकं भवेत्तस्य व्यतीपातो व्रतस्य वै ॥८५ अनेकभेदसंकीणं वृथा पापप्रदं त्यज । व्रतायानर्थदण्डं च स्वर्गमोक्षसुखाप्तये ॥८६ भोगोपभोगसंख्यानं तृतीयं सदगुणवतम् । कामेन्द्रियदमनाथं वक्ष्ये च गुणहेतवे ॥८७ भोगस्यैवोपभोगस्य संख्यायाक्रियते बुधैः । तदेवाजिनाः भोगोपभोगाख्यं व्रतं शुभम् ।।८८ पानाशनादि ताम्बूलगन्धपुष्पादिगोचरः। वारकसुखदो भोग उक्तः श्रीगणनायकैः ।।८९ वस्त्राभरणसद्यानगृहस्त्रीतुरगादिजः । उपभोगो बुधै यो मुहुर्मुहुः सुखप्रदः ॥९० शृङ्गवेरादिकन्दादिभक्षणं त्यज सर्वथा । अनन्तानन्तजोवानामभक्ष्यमिव पापदम् ॥९१ यत्रको म्रियते जीवस्तव मरणं भवेत् । प्राणिनामप्यनन्तानामाईकादिविघातनात् ॥९२ यत्रैको जायते प्राणी तत्रोत्पत्तिर्भवेद्भवम् । अनताङ्गिनां लोके च नीरबीजानियोगतः ॥९३ यत्र न ज्ञायते दक्षैः सिरा सन्धिश्च निश्चलम् । पर्वापि स्यानगादीनां तत्रानन्ताङ्गिसंस्थितिः ॥९४ समभङ्गो भवेद्यस्तु छिन्नभिन्नः प्ररोहति । वृक्षः स एव विज्ञेय आगमेऽनन्तकायिकः ॥९५ चेष्टाकी जाती है उसको कोत्कुच्य कहते हैं ॥८२॥ जो विना ही कारणके धृष्टता पूर्वक बहुत बोलता है उसके मौखर्य नामका अतिचार लगता है ।।८३॥ जो मनुष्य हिताहितको विना सोचे समझे किसी कार्यको कर बैठता है उसके पाप और दुःख देनेवाला असमीक्ष्याधिकरण नामका अतिचार लगता है ॥८४॥ जो अज्ञानी भोगोपभोगकी सामग्रीको आवश्यकतासे अधिक इकट्ठी कर लेता है उसके अतिप्रसाधन नामका अतिचार लगता है ॥८५।। हे भव्य ! व्रतोंको पालन करनेके लिये और स्वर्ग-मोक्षके सुख प्राप्त करनेके लिये अनेक भेदोंसे भरे हुए और व्यर्थ हो पाप उत्पन्न करनेवाले इन अनर्थदण्डोंका तू त्यागकर ।।८६॥ अब आगे गुण बढ़ानेके लिये भोगोपभोग संख्यान नामके तीसरे गुणवतको कहते हैं। यह गुणव्रत कामेन्द्रियको दमन करने के लिये है ।।८७॥ जो बुद्धिमान् लोग भोग और उपभोगोंको संख्या नियत कर लेते हैं उसीको भगवान् जिनेन्द्रदेव भोगोप भोग परिमाण नामका श्रेष्ठ व्रत कहते हैं ।।८८॥ पीनेके पदार्थ, भोजनके पदार्थ, तांबूल, गंध, पुष्प आदि जो पदार्थ एकवार काममें आते हैं उनको श्रीगणधरदेव भोग कहते हैं ।।८९।। वस्त्र, आभूषण, शय्या, सवारी, घर, स्त्री, हाथी, घोड़े आदि जो बार-बार सुख देते हैं उनको विद्वान् लोग उपभोग कहते हैं ॥९०।। हे भव्य ! तू अदरक आदि कंदमूलका भक्षण करना सर्वथा छोड़ दे, क्योंकि वह पाप देनेवाला अनन्तानंत जीवोंका समुदाय है इसलिये वह अभक्ष्य ही है ॥९१।। उन अदरक आदि कंदमूलोंके विदारण करनेसे जहाँ एक जीवका मरण होता है वहीं पर अनन्तानन्त जीवोंका मरण अवश्य हो जाता है ॥९२॥ कंदमूलोंमें पानी और बीजका संयोग होनेसे जहां एक प्राणीकी उत्पत्ति होती है वहीं अनन्तानन्त जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है ॥९३।। ककड़ी आदि जिन फलोंमें सिरा सन्धिका निश्चय न हो वा गन्ना आदिकी गांठ हो उसमें अनन्तानन्त प्राणियोंका निवास रहता है ।।९४|| तोड़नेसे जिसका समान भाग हो जाय (जिस प्रकार चाकूसे काटते हैं वैसा एकसा टुकड़ा हो जाय) अथवा छिन्न-भिन्न हो जानेपर भी जो उग आवे, पैदा हो जाय ऐसे फल वा वृक्ष अनन्तकायिक कहलाते हैं ॥९५।। जो मूर्ख सरसोंके समान भी कंदमूल खाते हैं वे अनन्त जीवोंका भक्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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