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________________ - १३४ श्रावकाचार-संग्रह करोति विकषां यस्तु यः शृणोति विमूढधीः । द्वयोः पापं समानं स्यात् श्वभ्रतिर्यग्गतिप्रदम् ॥६८ इति मत्वा कुशास्त्रं च पापदं धूर्तनिर्मितम् । श्रुत्वा जिनोदितं शास्त्रं किंपाकफलवत्त्यज ॥६९ भूखननं बहुनीरक्षेपणं चाग्निज्वालनम् । वातप्रकरणं हस्ताद्वनशाखाः प्रछेदनम् ॥७० वृमा पर्यटनं लोके गमनागमनं तथा। प्रेरणं वा परस्यापि सत्कार्येण विनापि यत् ॥७१ गृहस्पः क्रियते मूढः प्रमादादिसमन्वितैः । प्राहुः प्रमादचर्यां च तामेव श्रीगणाधिपाः ॥७२ बिना कार्य शठोके काचिदाचर्यते क्रिया। पापाढया च प्रमादाख्या चर्या सर्वापि सा भवेत् ॥७३ प्रमावाज्जायते घातो घातादेनस्ततोंगिनाम् । नरकं च ततो दुःखं दीर्घ वाचामगोचरम् ॥७४ यत्नं विधाय सद्धर्मे सुखागारं वृषाकरम् । त्यज प्रमादचर्या सव्रतादिभङ्गदुःखदाम् ॥७५ कारणेन विनाऽनथं दुःखदं पापसङग्रहं । करोत्येव ततोऽनर्थदण्डः स उच्यते बुधैः ॥७६ सर्वपापकरं पञ्चभेदं चानर्थसंज्ञकम् । त्यज यत्नं विधायोच्चैमनोवाक्कायनिग्रहम् ॥७७ त्यक्त्वा सर्वानतीचारान् यो वृत्तादिप्रसिद्धये। भजेदनर्थदण्डाख्यविरति गच्छेत्स्वगृहम् ॥७८ भगवन्तो विशध्वं मे कृत्वा कृपां सर्वव्यतिक्रमान् । महाशय ! शृणु त्वं ते व्यतीपातांश्च ब्रूमहे ॥७९ कन्वर्पो वत् कौत्कुच्यं ततो मौखर्यामिष्यते । चासमीक्ष्याधिकरणं त्वतिप्रसाधनं भवेत् ॥८० भण्डिमादिकरो रागोकादा समन्वितः । योऽतिनिन्द्यो हि दुर्वाक्यः कन्दर्पो हि स उच्यते ॥८१ को कहता है और जो इनको सुनता है उन दोनोंको नरक और तिर्यग्गतिके दुःख देनेवाला समान पाप लगता है ॥६८।। इसलिये हे भव्य ! इन कुशास्त्रोंको पाप उत्पन्न करनेवाले और धूर्तोके बनाये हुए जानकर और जिनेन्द्रदेवके कहे हुए शास्त्रों को सुनकर किंपाकफलके समान अवश्य ही इनका त्यागकर देना चाहिये ॥६९।। विना किसी प्रयोजनके पृथ्वी खोदना, बहुतसा पानी फैलाना, अग्नि जलाना, वायु करना, अपने हाथसे किसी वन-शाखाको काटना, व्यर्थ ही घूमना, आना जाना, वा विना किसी कार्यके दूसरोंको आने-जानेकी प्रेरणा करना, इत्यादि जो अज्ञानी गृहस्थ प्रमादसे करते हैं उसको गणधरादि देव प्रमादचर्या नामका अनर्थदण्ड कहते हैं ॥७०-७२।। अज्ञानी लोग जो विना किसी प्रयोजनके पापरूप कुछ भी क्रियाएँ करते हैं उन सब क्रियाओंको प्रमादचर्या अनर्थदण्ड कहते हैं॥७३॥ प्रमादचर्या अनर्थदण्डसे जीवोंका घात होता है, जीवोंका घात होनेसे पाप होता है, पापसे नरक मिलता है और नरकोंमें जो वचनोंसे भी नहीं कहा जा सके ऐसा घोर दुःख मिलता है।।७४॥ यह श्रेष्ठ धर्म ही सुखका घर है और धर्मको खानि है, यही समझकर इस श्रेष्ठ धर्मको धारण करनेके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये और दुःख देनेवाले और व्रतोंका भंग करनेवाले प्रमादचर्याका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।।७५।। ये पाँचों ही अनर्थदण्ड विना ही कारणके दुःख देते हैं और पापोंका संग्रह करते हैं इसीलिये बुद्धिमान लोग इनको अनर्थदण्ड कहते हैं ॥७६।। ये पांचों ही प्रकारके अनर्थदण्ड समस्त पापोंको उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिये मन वचन शरीरका निग्रहकर अपने वशमें कर प्रयत्नपूर्वक इनका त्याग करना चाहिये ॥७७।। जो बुद्धिमान अपने चारित्रको प्रसिद्धिके लिये अतिचारों को छोड़कर इस अनर्थदण्डविरति नामके व्रतको धारण करता है वह स्वर्गरूपी घरमें अवश्य पहुँचता है ॥७८॥ प्रश्न- हे भगवन् ! कृपाकर मुझे इस व्रतके सब अतिचारोंका निरूपण कीजिये । उत्तर-हे महाभाग ! सुन, मैं उन सब अतिचारोंको कहता हूँ ॥७९॥ कंदर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण, और अतिप्रसाधन ये पाँच अनर्थदण्ड व्रतके अतिचार कहे जाते हैं ।।८०॥ जो रागपूर्वक हँसीसे मिले हुए अत्यन्त निन्द्य और भंड वचन कहे जाते हैं उन दुर्वचनोंको कंदर्प कहते हैं ।।८।। जो हँसी और भंडरूप दुर्वचनोंके साथ शरीरकी निन्द्य और दुष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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