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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ३३३ इति मत्वा जनैनिन्द्यं ग्राह्य नैव क्रयाणकम् । द्रव्यार्थ धनलाभाय दारिद्रयादिप्रपीडितैः ॥५५ ख्यातिलोभातिमानेन हिंसाकारणवस्तु यत् । तत्सर्वं हि न दातव्यं बुधैः प्राणात्यये क्वचित् ॥५६ वधबन्धादिके द्वेषादुच्चाटनकदम्बके । शोकक्लेशमहादुःखे रागाभोगादिवस्तुषु ॥५७ पररामादिसंयोगे द्रव्यादिहरणे च यत् । चिन्तनं क्रयते मूढैरपध्यानं च तद्भवेत् ॥५८ यत्किञ्चिच्चितनं पुंसां पापाढयं दुःखकारणम् । अहितं स्वान्ययोस्तद्धि कुष्यानं स्याच्च श्वभ्रदम् ॥ अपध्यानं करोत्येव योऽतिदुष्टो वृथा स वै । महाघसङ्ग्रहं कृत्वा श्वभ्रकूपे पतिष्यति ॥६० तस्मादादाय सद्धर्मध्यानं स्वर्गगृहाङ्गणम् । दुनिं दुःखसञ्जातं त्यज त्वं मुक्तिहेतवे ॥६१ द्रव्यार्जनस्य वाणिज्यकृष्यारम्भकरस्य च । गृहादिशिल्पशास्त्रस्य पश्वादिपोषणस्य च ॥६२ संग्रामवर्णनस्यापि मिथ्यकान्तमतस्य च । वशीकरणविद्वेषहेतुभूतस्य प्रत्यहम् ॥६३ कुधर्मस्य कुशास्त्रस्य कुदेवस्यागुरोस्तथा । कुशृंगारस्य रागाढयाकरस्य दुःश्रुतेः स्फुटम् ॥६४. या कथा श्रूयते मूडैरेनोदुर्गतिदुःखदा । दुश्रुतिः सा जिनैः प्रोक्ता स्वर्गमुक्तिगृहागला ॥६५ या काश्चिद् विकया राजाचौरमुक्तादिजा बुधैः । श्रूयते दुःश्रुतिः सोऽपि सर्वस्वाध्यायजिता ॥६६ कुज्ञानाद् द्वेष रागादि सर्व सञ्जायते ततः । पापं पापाच्च श्वभ्रं हि ततो दुःखं परं नृणाम् ॥६७ करते हैं और जिन्होंने लोभको अपने हृदयसे निकाल दिया है ऐसे मनुष्यों के उत्तम आचरण करनेसे और पुण्यकर्मके उदयसे लक्ष्मी अपने आप आ जाती है ।।१४॥ ऐसा जानकर दारिद्रय आदिसे पीड़ित भी गृहस्थोंको धन कमानेके लिये निन्द्य पदार्थोंको स्वीकार नहीं करना चाहिये । ५५।। अपनी कीर्ति बढ़ानेके लिये, लोभके लिये वा अपनी प्रतिष्ठा प्रगट करनेके लिये कंठगत प्राण होनेपर भी हिंसा करनेवाले पदार्थों को कभी नहीं देना चाहिये, क्योंकि इनका देना हिंसादान है ॥५६॥ जो मूर्ख लोग राग अथवा द्वेषसे दूसरोंके वध बन्धनका, उच्चाटन, मारण वशीकरण आदिका, शोक क्लेश महा दुःख देने आदिका, दुसरेके भोगोपभोगके पदार्थोंके हरण करने वा परस्त्रीके हरण करनेका अथवा किसीके द्रव्य मारनेका चिन्तवन करते हैं उसको अपध्यान कहते हैं ॥५७-५८।। दूसरे मनुष्योंका जो कुछ पापरूप चिन्तवन करना है अथवा दूसरोंको दुःख देनेके कारणोंका चिन्तवन करना है, और दूसरोंके अहितका चिन्तवन करना है वह सब नरकमें पटकनेवाला अपध्यान वा कुध्यान है ।।५९। जो दुष्ट व्यर्थ ही अपध्यान करता रहता है वह महा पाप इकट्ठ कर अन्तमें नरकरूपी कूएमें पड़ता है ॥६०।। इसलिये हे भव्य ! तू मोक्ष प्राप्त करनेके लिये स्वर्गरूपी घरके आंगनके समान धर्मध्यान धारणकर और दुःखसे उत्पन्न होनेवाले अपध्यानका त्याग कर ॥६॥ जो द्रव्य कमानेको, व्यापार, खेती आरम्भ आदि करनेकी, घर बनाने आदि शिल्पशास्त्रकी, पशुओंके पालन करनेकी, युद्ध वर्णन करनेकी, मिथ्या एकान्त मतके पुष्ट करनेकी, वशीकरण आदिके कारणोंकी, कुधर्म, कुशास्त्र, कुदेव, कुगुरुकी, कुसंस्कारको और राग प्रगट करनेकी कथाएँ कही वा सुनी जाती हैं और जिन्हें मूर्ख लोग ही कहते वा सुनते हैं उसे दुःश्रुति कहते हैं। यह दुःश्रुति अनेक पाप और दुःख देनेवाली और स्वर्ग मोक्षरूपी घरको बन्द करनेके लिये अर्गलके समान है ॥६२-६५।। जो अज्ञानी लोग राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा आदि विकथाओंको सुनते हैं वह भी स्वाध्यायसे रहित दुःश्रुति ही है ॥६६॥ ऐसी दुःश्रुतिरूप कथाओंके सुननेसे मिथ्याज्ञान होता है, मिथ्याज्ञानसे रागद्वेष आदि विकार उत्पन्न होते हैं, विकारोंसे पाप होता है, पापोंसे नरकमें पड़ता है और नरकोंमें अनेक प्रकारके दुःख सहने पड़ते हैं ॥६७॥ जो अज्ञानी इन विकथाओं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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