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सत्रहवाँ परिच्छेद
कुंथु कुंथ्वादिजीवानां दयादक्ष जिनाधिपम् । वन्दे चक्रधरं देवं कुंथ्वंग्यादिदयाप्तये ॥१ . अणुव्रतानि व्याख्याय त्रिःप्रकारं गुणवतम् । गुणाकरं प्रवक्ष्यामि गृहस्थानां सुखप्रदम् ॥२ दिग्विरतिव्रतं प्रोक्तं चानर्थदण्डवर्जनम् । भोगोपभोगसंख्याख्यं श्रावकाणां गणाधिपः ॥३ गुणवतानि सारानि गुणानामपि वृंहणात् । भवन्ति धर्मसिद्धयर्थं दयादिवतकारणात् ॥४ संख्यां विधाय यो धीमान् दिक्समूहे बहिः कदा । न याति तस्य धर्माय भवेदिग्विरतिवतम् ॥५ सागराद्रिनदीद्वीपदेशोऽटव्यादयो मताः । मर्यादा जिननाथेन दिग्विरतिव्रतस्य वै ॥६ गृहस्थैरथवा कार्या योजनैर्गणनादिभिः । संख्या दशदिशां यावज्जीवहिंसाविहानये ॥७ मर्यादा परतः पापं स्थूलं सूक्ष्मं न जायते । बन्धादिपञ्चकोपेतं सङ्कल्पाभावतो नृणाम् ॥८ महाव्रतानि कथ्यन्तेऽणुव्रतान्यऽपि धोधनैः । कृतसंख्याबहिर्भागे सर्वसावद्यवर्जनात् ॥९ हिंसादिपञ्चपापानां यस्त्यागस्तन्महाव्रतम् । मनोवाक्काययोगैः स्यान्नणां स्वान्यकृतादिकैः ॥१० सद्भिश्चैवोपचारेण प्रणीतं सन्नहाव्रतम् । देशहिंसादित्यक्तानां दिग्विरतिकृतात्मनाम् ॥११ महापुण्यं भजेदंगी सद्दिग्विरतिसंख्यया । सन्तोषाद गमनाभावाग्नित्यं हिंसाविवर्जनात् ॥१२
जो कुन्थु आदि समस्त जीवोंकी दया पालन करनेमें चतुर हैं, जो तीर्थंकर और चक्रवर्ती हैं और जो देवाधिदेव हैं ऐसे श्री कुंथुनाथ भगवानको मैं कुंथु आदि समस्त जीवोंकी दया पालन करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ इस प्रकार अणुव्रतोंका स्वरूप कहकर अब आगे गृहस्थोंको सुख देनेवाले और गुणोंकी खानि ऐसे तीनों प्रकारके गुणव्रतोंका वर्णन करते हैं ॥२॥ गणधरदेवोंने दिग्विरतिव्रत, अनर्थदण्ड विरतिव्रत, और भोगोपभोग संख्यान ऐसे श्रावकोंके तीन गुणव्रत बतलाये हैं ॥३॥ ये गुणवत दया आदि व्रतोंके कारण हैं और गुणोंको बढ़ानेवाले हैं। इसलिये धर्मकी सिद्धिके लिये इनको सारभत गणव्रत कहते हैं ॥४॥ जो बद्धिमान समस्त दिशाओंकी मर्यादा नियत कर उसके बाहर कभी नहीं जाता है उसके दिग्विरति नामका पहिला गुणव्रत होता है ।।५।। स्वामी जिमनाथने समुद्र, नदी, पर्वत, द्वीप, देश, व आदि इस दिग्व्रतकी मर्यादा बतलाई है ॥६॥ अथवा जीवोंकी हिंसा बचानेके लिये गुहस्थोंको योजनोंके द्वारा दशों दिशाओंकी मर्यादा नियतकर लेनी चाहिये ॥७।। नियत को हुई मर्यादाके बाहर स्थूल अथवा सूक्ष्म सब तरहके हिंसा आदि पापोंका त्याग हो जाता है तथा मर्यादाके बाहर पापोंके लिये मनुष्योंके संकल्प और भाव भी नहीं होते इसीलिये बुद्धिमान् मर्यादाके बाहर समस्त पापोंका त्याग हो जानेसे उन अणुव्रतोंको मर्यादाके बाहर महाव्रत कह देते हैं ।।८-९।। हिंसादिक पाँचों पापोंका मन, वचन, कायसे और कृत कारित अनुमोदनासे त्याग करना महाव्रत कहलाता है ।।१०॥ यद्यपि इस प्रकारका त्याग दिग्वत धारण करनेवाले गृहस्थोंके नहीं होता, तथापि एक देश हिंसादिकका त्याग करनेवाले और दिग्व्रत धारण करनेवाले गृहस्थोंके मर्यादाके बाहर उपचारसे महाव्रत माना जाता है ॥११॥ इस दिग्व्रतको धारण करनेसे सन्तोष होता है, मर्यादाके बाहर भ्रमणका त्याग हो जाता है और हिंसादि पापोंका सर्वथा त्याग हो जाता है इसलिये दिग्वत धारण करनेवाले गृहस्थोंको महा पुण्यकी प्राप्ति होती है ।।१२।।
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