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________________ ३३० श्रावकाचार-संग्रह कर्तव्यो नियमः सारो दिग्विरतिव्रते बुधः । यावज्जीवं व्रतायोच्चैः कृत्वा स्वान्तं वशे स्वयम् ॥१३ अतीचारपरित्यक्तं दिग्विरतिव्रतं चरेत् । यो गृही तस्य जायेत सत्पुण्यं च सुखाकरम् ॥१४ भगवन्तो व्यपीपातान् संदिशध्वं व्रतस्य मे । एकचित्तेन भो मित्र ! शृणुतात् कथयाम्यहम् ॥१५ ऊर्ध्वव्यतिक्रमश्चाधो व्यतिपातो भवेन्नृणाम् । तियंग्व्यतिक्रमं क्षेत्रवृद्धिविस्मरणं दिशाम् ॥१६ प्रमादाज्ञानतो येऽपि काय॑त्वाल्लंघयन्ति ये । ऊर्ध्वसंख्यामतीचारं लभन्ते मलदायकम् ॥१७ क्वचित्कार्यवशाद येऽपि अधःसंख्यां त्यजन्ति ते । प्राप्नुवन्ति व्यतीपातं व्रतस्य नाशकं नराः ॥१८ तियंग्दिक्षु सुमर्यादा ये त्यजन्ति कुलोभतः । अतिक्रमो भवेत्तेषां दुस्सहो व्रतघातकः ॥१९ क्षेत्रवृद्धि प्रकुर्वन्ति दिक्समहस्य ये बुधाः । अतोचारो भवेत्तेषां प्रमादाजातलोभतः ॥२० यो दिग्विरतिभूमीनां धत्ते विस्मरणं शठः । व्यतीपातं श्रयेत्सोऽपि पापसन्तापदुःखदम् ॥२१ व्यतीपातविनिष्क्रान्तं दिग्विरतिव्रतं दृढम् । भज त्वं परलोकार्थ दयायं च शुभप्रदम् ॥२२ गुणवतं द्वितीयं ते व्याख्यायैकं गुणवतम् । वक्ष्ये धर्माय चानर्थदण्डविरतिलक्षणम् ॥२३ मध्ये दिग्विरतेनित्यं यः करोति नरोत्तमः । कारणेन विना पापत्यागं तस्याऽपि तद्भवेत् ॥२४ अनेकभेदयुक्तस्यानर्थदण्डस्य साम्प्रतम् । पञ्चभेदान् प्रवक्ष्यामि वृथा पापप्रदायकान् ॥२५ बाद्यः पापोपवेशध हिंसादानं भवेत्ततः । अपध्यानं दुराचारं दुःश्रुतिः श्रुतिदूषितः ॥२६ इस दिग्वतको धारण करते समय बुद्धिमान गृहस्थोंको अपने स्वार्थको वशमें कर जीवन-पयंततकके लिये नियम करना चाहिये ॥१३॥ जो गृहस्थाअतिचार-रहित इस दिग्नतको पालन करता है वह सुख देनेवाले महा पुण्यको प्राप्त होता है ॥१४॥ प्रश्न-हे भगवन् ! कृपाकर इस व्रतके अतिचारोंका निरूपण कीजिये । उत्तर-हे मित्र तू चित्त लगाकर सुन, मैं उन अतिचारोंको कहता हूँ ॥१५॥ ऊर्ध्वव्यतिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और विस्मरण ये पांच इस दिग्व्रतके अतिचार हैं ॥१६।। जो प्रमादसे अज्ञानसे अथवा किसी कार्यके वश होकर ऊपरकी (ऊर्ध्व दिशाकी) नियत की हुई मर्यादाको उल्लंघन करते हैं उनके दोष उत्पन्न करनेवाला ऊर्ध्वव्यतिक्रम नामका पहिला अतिचार होता है ॥१७॥ जो किसी कार्यके वशसे नियत को हुई अधोलोककी मर्यादाका उल्लंघन करते हैं उनके व्रतको नाश करनेवाला दूसरा अधोव्यतिक्रम नामका अतिचार लगता है ॥१८॥ जो लोभके वश होकर आठों दिशाओंकी मर्यादाका त्याग कर देते हैं उनके व्रतको घात करनेवाला और असह्य ऐसा तिर्यग्व्यतिक्रम नामका अतिचार लगता है ॥१९॥ जो पुरुष प्रमाद अज्ञान अथवा लोभसे सब दिशाओंके क्षेत्रकी मर्यादाको बढ़ा लेते हैं उनके क्षेत्रवृद्धि नामका अतिचार होता है ॥२०॥ जो दिग्व्रतमें धारण की हुई मर्यादाको ही भूल जाते हैं उनके पाप-सन्ताप और दुःख देनेवाला विस्मरण नामका अतिचार होता है ॥२१।। हे भव्य ! तू दयाको पालन करनेके लिये और व्रतोंको शुद्ध करनेके लिये अतिचारोंको छोड़कर पुण्य बढ़ानेवाले दिग्व्रतको धारण कर ॥२२॥ इस प्रकार पहिले गुणव्रतका व्याख्यानकर अब तेरे लिये अनर्थदण्डविरति नामके दूसरे गुणवतका व्याख्यान करता हूँ ॥२३।। जो पुरुषोत्तम दिग्वतका पालन करता हुआ भी विना कारणके लगनेवाले पापोंका त्याग करता है उसके अनर्थदण्डविरति नामका व्रत होता है ॥४॥ यद्यपि अनर्थदण्डके बहुतसे भेद हैं तथापि व्यर्थ ही पापोंको उत्पन्न करनेवाले उसके पांचों भेदोंको मैं कहता हूँ। भावार्थ-बहुतसे भेद इन्हीं पाँचोंमें अन्तर्भूत हैं ॥२५॥ पापोपदेश, हिंसादान, दुराचरणोंको करनेवाला अपध्यान, कानोंको दूषित करनेवाली दुःश्रुति और प्रमादके वश रहनेवालोंकी प्रमादचर्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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