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________________ ३२८ श्रावकाचार-संग्रह एवं चिन्तयतो तेन मूढेन रभसा स्वयम् । पावप्रसारितश्चक्रे विवान्धितचेतसा ॥१०४ पतितं तेन पादेन तस्येव घृतभाजनम् । द्वारे संक्षितोग्निश्च घृतेन ज्वलितस्तराम् ॥१०५ महाग्निज्वलितादद्वारान्निस्सतुं सोऽक्षमो मृतः । दग्धदेहोऽतितीवं प्रभुज्य दुःखं कुवह्निजम् ॥१०६ दुर्ध्यानेन गतो घोरां दुर्गति दुःखपूरिताम् । व्रतादिरहितो मूढस्तीव्रलोभाकुलोत्पथात् ॥१०७ अन्ये ये बहवो लोके लोभाकुलितचेतसः । चक्रवर्तिसुभौमादिप्रमुखा धनलोलुपाः ॥१०८ श्वभ्रतियग्गति प्राप्ता बह्वारम्भपरिग्रहात् । प्राज्ञः पुमान् कथां लोके कस्तेषां कथितुं क्षमः ॥१०९ अखिलदुरितमूलां दुर्गति दुःखयोनि विबुधजनविनिन्द्यां लुब्धदत्तो वणिग् भो। गत इह धन लोभाच्चेति मत्वा मनुष्य ! त्वमपि हन कुलोभं सारसन्तोषशस्त्रैः ॥११० निःशंकादिगुणान्विता हि मुदिताः श्रीजैनसच्छासने,सन्तोषादिषु तत्पराजिनपतेःभक्ता मुनीनां तथा। धर्मध्यानपरायणाः शुभषियः पञ्चैव चाणुवतान् धृत्वा यान्ति शिवालयं सुखकरं प्राप्याच्युतं श्रावकाः॥ सुरगतिसुखगेहं वानरत्नादिभाण्डं धृतिकरमपि सारं मुक्तिकन्दं गुणाढ्यम् । कुगतिगृहकपाटं पापवृक्षव्रजाग्निमणुव्रतमपि मित्र ! पञ्चकं प्राचर त्वम् ॥११२ इति श्री भट्रारक सकलकोति विरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे परिग्रहपरिमाणवत __ जयश्मश्रुनवनीतकथाप्ररूपको नाम षोडशमः परिच्छेदः ।।१३।। ॥१०३॥ इस प्रकार चिन्तन करते और अपने हृदयमें अपनेको चक्रवर्ती मानकर लोभसे अन्धे बने हुए उस मूर्खने वेगके साथ पैर फैलाये ॥१०४॥ दैवयोगसे वे पैर घीके वर्तनपर जा लगे जिससे वह सब घो फैलकर अग्निमें जा पड़ा और उस घीसे दरवाजेके पास की अग्नि बड़ी तेजीके साथ जलने लगी ॥१०५॥ वह अग्निकी भारी ज्वाला दरवाजेके पास ही जल रही थी इसलिये वह बाहर निकल भी न सका और उस अग्निमें हो जलकर मर गया ॥१०६॥ व्रत-रहित होने और अत्यन्त तीव्र लोभी होनेके कारण रौद्रध्यानसे उसके प्राण छूटे और इसीलिये उसे अनेक दुःखोंसे भरपूर अनेक दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करना पड़ा ॥१०७॥ इसके सिवाय सुभौम चक्रवर्तीको आदि लेकर और भी ऐसे बहुतसे लोग हो गये हैं जिनका हृदय लोभसे सदा व्याकुल रहता था और जो अत्यन्त लोभी थे, और इसीलिये बहुतसे आरम्भ और परिग्रहके कारण उन्हें नरक और तिर्यच गतियोंके दुःख भोगने पड़े। उन सबकी कथाओंको कोई भी विद्वान् नहीं कह सकता ।।१०८-१०९।। हे मित्र ! देख ! यह कुलोभ समस्त पापोंकी जड़ है, अनेक दुर्गतियोंके दुःख देनेवाला और विद्वानोंके द्वारा निंद्य है। इसी कुलोभके कारण लघुदत्त वैश्यको दुर्गतिमें जाना पड़ा, इसलिये सारभूत सन्तोषरूपी शस्त्रोंके द्वारा कुलोभको नष्टकर ॥११०। इस संसारमें जो श्रावक निःशंकित आदि अङ्गोंको पालन करते हैं, जैनधर्मको पालनकर प्रसन्न होते हैं, सन्तोष आदि सद्गुणोंको धारण करनेमें तत्पर हैं, श्री जिनेन्द्रदेव और मुनियोंके भक्त हैं, धर्मध्यानमें लीन रहते हैं, और जिनकी बुद्धि शुभ है ऐसे श्रावक पाँचों अणुव्रतोंको पालनकर सुख देनेवाले अच्युत स्वर्गको पाते हैं और फिर अनुक्रमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥१११॥ ये पांचों अणुव्रत देवगतिके सुखके घर हैं, ज्ञानरूपी रत्नके पिटारे हैं, मोक्षकी जड़ हैं, अनेक गुणोंसे सुशोभित हैं, दुर्गतिरूपो घरको बन्द करनेके लिये किवाड़ हैं, पापरूपी वृक्षोंको जलानेके लिये अग्नि है । हे मित्र ! ऐसे इन पांचों अणुवतोंको तू पालन कर ॥११२॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीतिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें परिग्रहपरिमाणका स्वरूप और जयकुमार तथा श्मश्रुनवनीतकी कथाको कहनेवाला यह सोलहवां परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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