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________________ सोलहवाँ परिच्छेद शान्तिनाथं नमस्यामि जगच्छान्तिविधायकम् । शान्तकर्मारिसंचक्रं शान्तिदं कर्मशान्तये ॥१॥ पचमाणुव्रतं वक्ष्ये सन्तोषादिकरं परम् । परिग्रहप्रमाणाख्यं लोभाद्यादिप्रशान्तये ॥२ परिग्रहप्रमाणं सव्रतं प्रोक्तं गणाधिपैः । लोभादिकविनाशार्थं श्रावकाणां जिनागमे ॥३ कृत्वा सन्तोषसारं ये संख्यां कुर्वन्ति सद्बुधाः । परिग्रहस्य तेषां स्थात्सत्स्थूलं पंचमं व्रतम् ॥४ क्षेत्रं गृहं धनं धान्यं द्विपदं च चतुष्पदम् । आसनं शयनं वस्त्रं भाण्डं स्याद्गृहमेधिनाम् ॥५ जिनेन्द्रदेशधाः प्रोक्ता गृहस्थानां परिग्रहाः । तेषां संख्या नरैः कार्या पापारम्भादिहानये ॥६ अथ हिसाकरं क्षेत्रं त्यज त्वं धर्महेतवे । यदि त्यक्तुं समर्थो न संख्यां कुरु हलादिके ॥७ ममत्वजनके सारे स्थावरत्रसघातके । सन्तोषधर्मसिद्धयर्थं भज संख्यां गृहादिके ॥८ द्रव्यरूप्यसुवर्णादौ स्तोकां संख्यां विधेहि भो । लोभं पापकरं त्यक्त्वा पीत्वा सन्तोषजामृतम् ॥९ शाल्यादि - सर्वधान्यानां प्रमाणं भज सर्वथा । कोटाद्युत्पत्तिहेतुनां ह्रस्वव्रतविशुद्धये ॥१० भृत्यानां दासदासीनां भार्याणां च शुभाय वै । परिमाणं प्रकर्तव्यं श्रावकैः गुरुसन्निधौ ॥११ अश्ववृषभगोसर्वचतुष्पदकदम्बके । त्रसादिहिंसके स्तोकां कुरु संख्यां प्रपापदे ॥ १२ जिन्होंने कर्मरूप शत्रुओंके समूहको शान्त कर दिया है, जो शान्ति देनेवाले हैं, और संसार - भरमें शान्तिके स्थापक हैं ऐसे श्री शान्तिनाथ भगवान्‌को में अपने कर्म शान्त करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ||१|| अब मैं उत्कृष्ट सन्तोषको उत्पन्न करनेवाले और लोभके नाश करनेवाले परिग्रहपरिमाण नामके पाँचवें अणुव्रतको कहता हूँ ||२|| गणधरादि देवोंने परिग्रहपरिमाणको सबसे श्रेष्ठ व्रत कहा है तथा श्रावकोंका लोभ दूर करनेके लिये ही शास्त्रों में इसका निरूपण है ||३|| जो बुद्धिमान् सन्तोष धारणकर परिग्रहोंकी संख्या नियत कर लेते हैं उनके यह पाँचवां परिग्रहपरिमाण नामका व्रत होता है ||४|| खेत, घर, धन, धान्य, नौकर चाकर, घोड़ा बैल आदि पशु, आसन, शयन, वस्त्र और भांड ये गृहस्थोंके दश प्रकारके परिग्रह भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहे हैं । गृहस्थोंको पापरूप आरम्भोंको घटानेके लिये इन सब परिग्रहोंकी संख्या नियत कर लेनी चाहिये || ५ - ६ || इनमें पहिला परिग्रह खेत है वह सबसे अधिक हिंसा करनेवाला है अतएव धर्मपालन करनेके लिये तू उसका त्याग कर । यदि तू उसका त्यागकर नहीं सकता तो हल आदिकोंकी संख्या नियत कर ले ||७|| संसारमें जितनी भी घर आदिको सम्पत्ति है वह सब ममत्व बढ़ानेवाली है और त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा करनेवाली है इसलिये सन्तोषधर्मको सिद्ध करनेके लिये तू घर आदिकोंकी भी संख्या नियत कर ले ||८|| हे वत्स ! पाप उत्पन्न करनेवाले लोभको छोड़कर और सन्तोषरूपी अमृतको पीकर सोना चांदी आदि धनकी भी थोड़ीसी संख्या नियत कर ले ||९|| चावल, गेहूँ, चना आदि अनेक कीड़ोंके उत्पन्न होनेके कारण हैं अतएव अपने व्रत शुद्ध रखनेके लिये तू इनका भी थोड़ासा प्रमाण नियत कर ले ||१०|| श्रावकोंको अपने गुरु के पास जाकर दास दासी आदि सेवकों का तथा स्त्रियों का प्रमाण नियत कर लेना चाहिये ||११|| घोड़ा, बैल, गाय आदि जितने पशु हैं सबके पालन करनेमें त्रस जीवोंकी हिंसा होती है इसलिये इनका भी प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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