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प्रश्नोत्तरश्रावकाचार
याने सिंहासने चैव शकटादौ तथा भज । प्रमाणं मित्र ! धर्माय खट्वाविशयने वरे ॥१३ क्षौमादिके सुवस्त्रे च भज संख्यां व्रताय भोः । मञ्जिष्ठादौ चसद्भाण्डे महार्घे भाजने तथा ॥१४ परिग्रहप्रमाणेन लोभश्चैव विलीयते । नृणां सन्तोषसव्राज्यं भवत्येव गृहेशिनाम् ॥१५ सन्तोषाज्जायते धर्मो धर्मात्स्वर्गस्ततः सुखम् । तस्मात्सुखार्थिनां लोके त्याज्यो लोभोऽतिदूरतः ॥१६ सन्तोषसदृशं सौख्यं न भूतं भूवनत्रये । भविष्यति न सारं च नास्ति धर्माकरं परम् ॥१७ सन्तोषासनमासीनो यद्यद्वस्तु समीहति । तत्तदेव समायाति स्थितं लोकत्रयेऽचिरात् ॥१८ सन्तोषाख्यसुधां पीत्वा जन्ममृत्युजराविषम् । हत्वा भुक्त्वा महासौख्यं शिवं यान्ति बुषोत्तमाः ॥१९ न लभन्ते यथा लोके याञ्चाशीला धनं नराः । तथा लोभात्समीहन्ते ये ते द्रव्यं भजन्ति न ॥२० यथा च निस्पृहा जीवाः प्राप्नुवन्ति धनं हठात् । तथा सन्तोषद्रव्येण द्रव्यमायाति देहिनाम् ॥२१ सन्तोषाच्छ्री समायाति लोभाद्याति गृहात् पुनः । विचार्येति कुरु त्वं भो यदिष्टं धर्मदं पुनः ॥२२ अथवा सातिपुण्येन नृणामायाति भो स्वयम् । तद्विना सा गृहाच्छ्रीघ्रं नश्यत्येव चिराजिता ॥२३ तस्माद्धनार्थिना लोके पुण्यं कार्यं स्वशक्तितः । येनायाति महालक्ष्मीस्तद्विना काङ्क्षया हि किम् ॥२४ धर्माद् गृहे स्थितिः कुर्युः श्रियश्चक्रादिगोचराः । तीर्थादिका इहामुत्र शक्रादिसुखदा नृणाम् २५
कर संख्या नियत कर लेनी चाहिये ||१२|| इसी प्रकार गाड़ी, पालकी आदि सवारियोंकी संख्या भी नियत कर लेनी चाहिए और धर्म - पालन करनेके लिये पलङ्ग आदि सोने व आराम करनेके साधनोंकी भी संख्या नियत कर लेनी चाहिए || १३|| इसी तरह वस्त्रोंकी संख्या तथा वर्तन आदि अन्य सामग्रियोंकी संख्या भी नियत कर लेनी चाहिए || १४ || इस परिग्रहके परिमाण करनेसे गृहस्थोंका लोभ नष्ट हो जाता है और तृष्णा सन्तोष रूपमें परिणत हो जाती है ||१५|| सन्तोषसे धर्म होता है, धर्म से स्वर्गकी प्राप्ति होती है और स्वर्गं प्राप्त होनेसे सुख मिलता है इसलिये सुख चाहनेवाले लोगोंको यह लोभ दूरसे ही छोड़ देना चाहिये ||१६|| सन्तोषके समान सुख तीनों लोकमें न तो हुआ है न हो सकता है न इसके समान अन्य कुछ सार है और न कोई इसके समान उत्तम धर्म प्रगट करनेवाला है ||१७|| सन्तोषरूपी आसन पर बैठा हुआ मनुष्य जो-जो पदार्थ चाहता है वह चाहे तीनों लोकों में कहीं भी क्यों न हो उसे उसी समय मिल जाता है ||१८|| जो उत्तम विद्वान् सन्तोषरूपी थोड़े से अमृतको भी पी लेता है वह जन्म मरण बुढ़ापा आदि विषको नष्टकर और महासुखोंको भोगकर अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है || १९|| जिस प्रकार मांगनेवाले लोगोंको धनकी प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार जो लोभसे द्रव्यकी इच्छा करते हैं उन्हें द्रव्यकी भी प्राप्ति नहीं होती ॥२०॥ जिस प्रकार निःस्पृह जीवोंको विना इच्छाके भी धनकी प्राप्ति हो जाती है उसी प्रकार सन्तोष धारण करने से मनुष्योंको धनकी प्राप्ति अपने आप हो जाती है ||२१|| सन्तोष धारण करनेसे द्रव्य आता है और लोभ करने से घरमें रक्खा हुआ द्रव्य भी चला जाता है । यही विचार कर हे भव्य पुरुषो ! जो धर्म और धन प्राप्त करना इष्ट हो तो सन्तोष धारण करना चाहिए ॥ २२॥ अथवा पुण्यकर्मके उदयसे मनुष्योंके लक्ष्मी स्वयं आ जाती है और विना पुण्यके बहुत दिनसे इकट्ठी की हुई और घरमें रक्खी हुई लक्ष्मी भी नष्ट हो जाती है ||२३|| इसलिये धन चाहनेवाले लोगोंको अपनी शक्तिके अनुसार पुण्यकार्य करना चाहिये । क्योंकि लक्ष्मी पुण्यसे ही आती है विना पुण्यके केवल इच्छा करने से कुछ नहीं होता || २४|| इस लोकमें चक्रवर्तीकी लक्ष्मी तथा तीर्थंकरोंकी लक्ष्मी और परलोकमें इन्द्रादिकको सुख देनेवाली लक्ष्मी धर्मात्मा मनुष्यके ही घर स्थिरता के साथ
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