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थावकाचार-संग्रह गच्छन्ती जारपाश्र्वे सा यमदण्डेन सेविता । दृष्ट्वा तद्भुषणं नीत्वा स्वभार्यादत्तमेव च ॥११४ तदृष्ट्वा तु तया प्रोक्तं मदीयं भूषणं स्फुटम् । एतद्दिनावसाने च मया श्वसुः करे धृतम् ॥११५ तस्या वाचं समाकर्ण्य चिन्तितं तेन तत्क्षणे । या मया सेविता नूनं सा मे माता भविष्यति ॥११६ ततोऽसौ जारसंकेतगृहं गत्वा सदा निशि । कुकर्म गूढवृत्त्या हि करोत्येव तया समम् ॥११७ मात्रासमं स मूढात्मा प्रत्यहं दुरितोदयात् । अत्यासक्तो हि सञ्जातः प्रच्छन्नेन कुमार्गतः ॥११८ एकदा रुष्टया प्रोक्तं रजक्यास्तस्य भार्यया । निजमात्रासमं भर्ता तिष्ठत्येव सदा मम ॥११९ रजक्या कथितं मालाकारिण्याः प्रीतियोगतः । तद्वत्तान्तमहो याति व्यक्तं पापं स्वयं भुविः ॥१२० सत्पुष्पाणि समादाय सा राजोनिकटं गता। अपूर्वा च कथा काचिद् तया पृष्टा कुतूहलात् ॥१२१ तयोक्तं देवि पापात्मा कामक्रीडां करोति वै । यमदण्डतलारोऽयं स्वाम्बया सह प्रत्यहम् ॥१२२ राज्याशु भणितो राजा देव वै रक्षकस्राव । अम्बया सह लुब्धोऽयं तिष्ठत्येव विमूढधीः ॥१२३ ततो राजा तदाकर्ण्य प्रच्छन्नपुरुषैः स्फुटम् । गूढवृत्तं समालोक्य कृतं तन्निश्चयं स्वयम् ॥१२४ ततो राज्ञा महादुःखैश्छेदबन्धवधादिजैः । निगृहीतोऽतिसंघोरैर्यमदण्डोऽति पापतः ॥१२५ अनुभूय महादुःखं सोऽपि पापकुकर्मजम् । मृत्वा गतोऽतिसङ्घोरां दुर्गति तीव्रक्लेशदाम् ॥१२६ परस्त्रीदोषतः प्राप्तो रावणः विप्रमाक्षितिम् । राज्यनाशादिकं प्राप्य तस्य ख्याता कथा भुवि ॥१२७
रखनेके लिये दे दिये थे । उन आभूषणोंको लेकर वह वसुन्धरी रात्रिके समय जारके पास जा रही थी । मार्गमें यमदण्डने उसे रोक लिया, उसके साथ विषयसेवन किया और उसके पास जो आभूषण थे वे लेकर अपनी स्त्रीको दे दिये ॥११३-११४॥ उन आभूषणोंको देखकर उसकी स्त्रीने कहा कि ये तो मेरे आभूषण हैं, मैंने ये शामको रखने के लिये अपनी सासुको दिये थे ॥११५॥ अपनी स्त्रीकी यह बात सुनकर यमदण्डने उसी समय सोच लिया कि रातको जिसे मैंने सेवन किया है वह मेरी माता ही होगी ।।११६।। तदनन्तर वह मूर्ख जान-बूझकर भी प्रतिदिन रातको जार बनकर उसके संकेत किये हुए घर जाने लगा और उस अपनी माताके साथ कुकर्म करने लगा ॥११७|| वह कुमार्गगामी महामूर्ख यमदण्ड अपने पापकर्मके उदयसे छिपकर प्रतिदिन अपनी माताके पास जाने लगा और उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया ॥११८॥
किसी एक दिन यमदण्डकी स्त्रीने क्रोधित होकर धोबिनसे कह दिया कि "मेरा पति अपनी माताके साथ सदा रहता है" ॥११९॥ धोबिनने यह बात मालिनसे कह दी। इस प्रकार वह यमदण्डका पाप समस्त संसारमें प्रसिद्ध हो गया ॥१२०|| किसी एक दिन सुन्दर फूल लेकर वह मालिन रानीके पास गई। रानीने कौतूहलपूर्वक उससे कोई अपूर्व बात पूछी ॥१२॥ मालिनने कहा कि हे देवी! पापी यमदण्ड कोतवाल प्रतिदिन अपनी माताके साथ विषय-सेवन करता है ॥१२२॥ रानीने यह बात राजासे कह दी कि हे देव ! आपका मूर्ख कोतवाल अपनी माताके साथ आसक्त हो गया है ॥१२३॥ राजाने रानीकी यह बात सुनकर गुप्तचरोंके द्वारा छिपकर सब बात देखी और फिर उसपर विश्वास किया ।।१२४॥ तदनन्तर राजाने उस पापी यमदण्डको वध, बन्धन, छेदन, आदि महा घोर दुःख देकर दण्डित किया ॥१२५।। पाप और कुमार्ग चलनेके महा दु:खोंको भोगकर वह यमदण्ड मरकर अत्यन्त दुःख देनेवाली घोर दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करने लगा ॥१२६॥ परस्त्रीहरण करनेके दोषसे ही रावणका त्रिखण्ड राज्य नष्ट हो गया और वह मरकर तीसरे नरकमें पहुँचा उसकी कथा संसारमें प्रसिद्ध है ॥१२७।। अमृतादेवी
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