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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ३१७ सीताशीलप्रभावेन चाग्निकुण्डं सरोवरम् । जातं देवैः कृतं नूनं श्रीरामादिगोचरैः ॥१०१ तथा देवेनरैः पूज्या या सीतातिमहासती । तस्याः कथा जनै या शास्त्रे रामायणादिके ॥१०२ सुदर्शनमहाश्रेष्ठी कामदेवोऽतिरूपवान् । पूज्योऽमरैस्तथा भूपैः शीलात् त्यक्तोपसर्गतः ॥१०३ योऽत्रैव तस्य धीरस्य गुणरत्नाकरस्य वै । सुदर्शनाभिधे शास्त्रे कथा ज्ञेया बुधोत्तमैः ॥१०४ चक्रिसेनाधिपो धीरो जयो नाम गुणाकरः । देवराजसभायां यः स्तवनीयः सुराधिपः ॥१०५ तथा पूज्यो महाशीलान्मुक्तिभर्तुश्च तस्य वै । आदिनाथपुराणेऽपि कथा ज्ञेया बुधर्वरा ॥१०६ अन्ये ये बहवः ख्यातः सुकेत्वादिवणिग्वराः । पूज्याः सुरैः कथास्तेषां कः क्षमो गदितुं भुवि ॥१०७ सच्छीलेन विना प्राणी वधबन्धादिक्लेशजम् । प्राप्य दुःखमिहामुत्र श्वभ्रादिकुति व्रजेत् ॥१०८ शीलाहते महादुःखं येन प्राप्तं प्रभो ! मम । कथां तस्य दयां कृत्वा सद्धर्माय प्ररूपय ॥१०९ विधाय स्ववशे चित्तं शृणु वक्ष्ये कथां तब । आरक्षकभवां शीलत्यक्तलोकस्य भीतिदाम् ॥११० अहीराख्ये शुभे देशे नाशिक्य नगरे वरे । कनकादिरथो राजा जातः पुण्यफलोदयात् ॥१११ राज्ञी कनकमालाभूत्तस्य शीलादिवजिता । तलारो यमदण्डाख्यो माता तस्य वसुंधरी ॥११२ एकदा पुंश्चलो रात्रौ रण्डातितरुणा शुभा। वध्वा धतुं प्रदत्तानि गृहीत्वाभरणानि वै ॥११३ उत्पन्न करने के लिये पृथ्वीके समान और शीलरूपी रत्नोंकी खानि ऐसी सेठकी पुत्री नीली शीलरत्नके प्रभावसे समस्त दोषोंसे रहित हुई तथा इसी लोकमें देव राजा प्रजा आदि सब लोकोंके द्वारा पूज्य हुई।१००। इस शीलरत्नके प्रभावसे ही सती सीताका अग्निकुण्ड रामचन्द्र आदि सब महापुरुषोंके सामने देवोंके द्वारा सरोवर बन गया था ॥१०१।। जो महासती सीता देव और मनुष्योंके द्वारा पूज्य हुई थी उसको कथा रामायण (पद्मपुराण) आदि शास्त्रोंसे जान लेनी चाहिये ॥१०२॥ महासेठ सुदर्शन कामदेव थे, और अत्यन्त रूपवान थे, वे भी शीलरत्नके प्रभावसे उपसर्गसे छूटे और राजा तथा देवोंके द्वारा पूज्य हुए थे ॥१०३।। गुणोंके सागर और अत्यन्त धीरवीर ऐसे उन सुदर्शनसेठको कथा विद्वानोंको सुदर्शनचरित्र नामके ग्रन्थसे जान लेनी चाहिये ॥१०४॥ इसी प्रकार धीर वीर चक्रवर्ती तथा राजा भरतके सेनापति और गुणोंकी खानि राजा जयकुमार इन्द्रकी सभामें भी इन्द्रोंके द्वारा स्तुति करनेयोग्य समझे गये थे ॥१०५।। तथा महाशीलके प्रभावसे वे पूज्य हुए थे, और मुक्तिके स्वामी हुए थे। विद्वानोंको उनकी कथा आदिनाथपुराणसे जान लेनी चाहिये ।।१०६॥ इस शीलवतके कारण सुकेतु आदि कितने ही पुरुष देवोंके द्वारा पूज्य हुए हैं उन सबकी कथाओंको कोई कह भी नहीं सकता ॥१०७॥ जो प्राणी इस शीलवतको पालन नहीं करते वे इस जन्ममें भी अनेक वध बन्धन आदि महा दःखोंको पाते हैं और परलोकमें मरकर नरक आदि दुर्गतियोंमें जन्म लेते हैं ॥१०८।। प्रश्न हे प्रभो, इस शीलको पालन नहीं करनेसे जिसने अनेक दुःख पाये हैं उसकी कथा भी कृपाकर मेरे लिये कह दीजिये ॥१०९॥ उत्तर-हे वत्स ! तू चित्त लगाकर सुन । जिसने अपने शोलवतको छोड़ दिया है उसकी भय उत्पन्न करने वाली कथा कहता हूँ ॥११०।। अहीर नामके देशके नाशिक्य नामके नगरमें अपने पुण्यके फलसे राजा कनकरथ राज्य करता था ॥१११।। उसकी रानीका नाम कनकमाला था। दैवयोगसे वह शील-रहित थी। उसी राजाके यहाँ एक यमदण्ड नामका कोतवाल था और उसकी माताका नाम वसुन्धरी था ॥११२॥ वह वसुन्धरी विधवा थी, रूपवती, तरुणी और व्यभिचारिणी थी। किसी एक दिन शामके समय यमदण्डकी स्त्रीने अपने कुछ आभूषण अपनी सासु वसुन्धरीके पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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