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________________ ३१६ श्रावकाचार-संग्रह जातो दोषः प्रसिद्धोऽस्मिन् लोकमध्ये यदा तदा। जिनाने सत्प्रतिज्ञात्र गृहोताशु तया दृढा ॥८७ यदि नश्यति दोषोऽयमहं भक्ष्ये तदा स्फुटम् । नोचेदनशनं चास्तु यावज्जीवं सुखाकरम् ॥८८ इति संन्यासमादाय कार्योत्सर्गेण संस्थिता। निश्चलाङ्गा महाबीरा सा स्मरन्ती जिनं हृदि ॥८९ पुरदेवतयागत्य रात्रौ सा भणिता सती । पुरः क्षुभितया शीघ्र शीलमाहात्म्ययोगतः ॥९० हे महासति ! प्राणानां त्यागं त्वं मा कुरु वृथा । स्वप्नं ददाम्यहं राज्ञः प्रधानानां च श्रेष्ठिनाम् ॥९१ प्रतोल्यो नगरे सर्वा उद्घाटिष्यन्ति कोलितः । स्पृष्टा महासतीवामपादेनैव न चान्यथा ॥९२ तासां संस्पर्शनं कुर्याः पादेनैवातिशीघ्रतः । उद्घटिष्यन्ति चेत्पादस्पर्शाच्छुद्धा त्वमेव ताः ॥९३ इत्युक्त्वा सा ततो गत्वा दत्वा स्वप्नं हि तादृशम् । राजादीनां प्रतोलीश्च कोलित्वाऽपि स्वयं स्थिता ॥९४ प्रतोलीरक्षकाच्छ त्वा प्रभाते ताः प्रकीलिताः । राजादयोपि तत्स्मृत्वा स्वप्नं तत्रागताः स्वयम् ॥९५ आकार्य नगरस्त्रीणां वामपादेन ताडनम् । प्रकारितं प्रतोलीनां राज्ञा नोद्घटिता हि ताः ॥९६ पश्चान्नीली समुत्क्षिप्य तत्रानीता शुचिवतात् । तत्पादस्पर्शनात्ता हि सर्वा उद्घटितास्तदा ॥९७ ततो राजादिभिर्नीली ज्ञात्वा शीलं प्रशंसिता । पूजिता वस्त्राभरणैः स्तुता लोकैस्तथा परैः ॥९८ त्यक्तदोषास्तदा जाता लोकमध्येऽतिसत्त्वतः । इहामुत्र च विख्याता पूज्या नोली नरामरैः ॥९९ सकलविगतदोषा शीलसारेण जाता, अमरनपजनैश्च पूजिताऽत्रैव लोके। यमदमशमपूर्णा श्रेष्ठिपुत्री हि नीली, विमलगुणधरित्री शीलरत्नादिखानिः ॥१०० नीलीका यह महादोष संसारमें प्रसिद्ध हो गया तब नीली नीचे लिखी प्रतिज्ञाकर भगवानके सामने खड़ी हो गई कि "यदि मेरा यह झूठा लगा हुआ दोष नष्ट हो जायगा तब मैं भोजन करूंगी अन्यथा जीवनपर्यन्त जीवोंको सुख देनेवाला अनशन व्रत धारण करूंगी ॥८७-८८। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा कर और निश्चल शरीरको धारण कर, धीर वीर महासती नीली हृदयमें भगवान जिनेन्द्रदेवको स्मरण करती हुई कायोत्सर्ग धारण कर भगवानके सामने खड़ी हो गई ॥८९।। उसके शीलके माहात्म्यसे नगरके देवताको भी क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने रात्रिमें उसके सामने आकर कहा कि-॥९०॥ हे महासती ! तू व्यर्थ ही प्राणोंका त्याग मत कर, मैं आज रातको ही यहाँके राजाको, मन्त्रीको तथा मुख्य मुख्य सेठ लोगोंको एक स्वप्न देता हूँ कि नगरके जो दरवाजे कीलित हो गये हैं वे किसी महासतीके बांये पैरके स्पर्श होते ही खुल जायेंगे।' इसके बाद तू अपने बांये पैरसे उनका स्पर्श करना, तेरे पेरका स्पर्श होते ही वे सब किवाड खुल जायंगे और तेरी शुद्धता प्रगट हो जायगी ॥९१-९३।। यह कहकर वह देवता चला गया, उसने जाकर राजा और मन्त्रियों को वैसा ही स्वप्न दिया और फिर नगरके दरवाजोंको कीलितकर स्वयं वहाँ बैठ गया ||९४।। दरवाजोंके रक्षकोंने सवेरे ही आकर महाराजसे निवेदन किया । उधर उन्हें स्वप्न आया ही था इसलिये रक्षकोंकी बात सुनते ही स्वप्नकी बात याद की और नगरको सब स्त्रियोंको बुलाकर सबके बांये पैरका स्पर्श उन दरवाजोंसे कराया परन्तु वे दरवाजे किसीसे नहीं खुले ।।९५-९६।। तब पवित्र प्रभाको धारण करनेवाली नीली वहाँसे उठाकर लाई गई। उसका पैरका स्पर्श कराते ही दरवाजे झट खुल गये ॥९७।। तब राजा प्रजा सबने नीलीको अत्यन्त शीलवती समझा और वस्त्राभरणोंसे उसकी पूजा की तथा अन्य लोगोंने भी उसकी स्तुति की ॥९८। इस प्रकार वह नीली संसारभरमें निर्दोष प्रसिद्ध हुई, सबके द्वारा पूज्य हुई और परलोकमें भो देवोंके द्वारा पूज्य हुई ॥१९॥ देखो, यम नियम इन्द्रिय-दमन और शान्त परिणामोंसे परिपूर्ण तथा निर्मल गुणोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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