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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार सा कूपे पतिता दुःखं भुङ्क्ते चैकभवं पुनः । अनन्तभवजं पापान्मिथ्यादृष्टिगृहे गता ॥७५ बालहत्या भवेद्दोषः कन्याकूपादिक्षेपणात् । नृणां भवेत्कुनीचाय दानात्पापमनेकशः ॥७६ श्वसुरस्य गृहे नीली पृथग्भूत्वा प्रियान्विता । जैनं धर्मं करोत्येव चैकचित्तेन प्रत्यहम् ॥७७ धर्मादिश्रवणाद्दानात्संसर्गाद्वा भविष्यति । कालेन बौद्धभक्तेयं श्रेष्ठी मत्वेति संजगौ ॥७८ हे नीलि ! ज्ञानिनां त्वं हि वन्दकानां सुभोजनम् । आमन्त्र्य विदुषां देहि अस्मदर्थं सुखाकरम् ॥७९ नोल्याहूय पुनस्तेषां भोक्तुं दत्तातिखण्डिता । एकैका पादरक्षिका संस्कार्यातिरसान्विता ॥८० गच्छद्भिर्भोजनं कृत्वाऽदृष्टा प्राणहिता वरा । क्व गता नैव पश्यामस्तैरागाङ्कित विग्रहैः ॥८१ तयोक्तं यत्र ताः सन्ति यूयं जानीत शीघ्रतः । ज्ञानेन यदि तन्नास्ति कथं पूज्या बुधोत्तमैः ॥८२ तैरुक्तं नास्ति चास्माकं ज्ञानमीदृग्विधं पुनः । तयोक्तं तहि ताः सन्ति प्रोदरे श्रीमतां स्थिताः ॥८३ नोचेद्वचनविश्वासः कुर्वोध्वं वमनं तदा । दृष्टानि चर्मखण्डानि तैः कृते वमने बलात् ॥८४ ततोऽतिनष्टसन्मानाः गताः लज्जाकुला हि ते । श्वसुरस्य जनाः सर्वे रुष्टास्तन्मानखण्डनात् ॥८५ कोपात्सागरदत्तस्य भगिन्यादिभिरप्यधात् । नील्याः दत्तो महादोषः परनृगमनादिकः ॥ ८६ परन्तु मिथ्यात्वको सेवन करनेवाले मूर्खके लिये देना अच्छा नहीं ||७४ | इसका भी कारण यह है कि यदि वह कूएँ में डाल दी जायगी तो केवल इसी एक भवमें दुःख भोगेगी, परन्तु मिथ्यादृष्टि के घर जानेपर वह मिथ्यात्वसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके पाप करेगी और फिर अनन्त भवोंतक दुःख पावेगी ||७५ || कन्याको कूएँ में डाल देनेसे मनुष्योंको बालहत्याका दोष लगाता है और नीच मनुष्यको देने में अनेक प्रकारके पाप होते हैं ॥७६॥ ३१५ इधर नीली अपने श्वसुरके घर अपने पतिके साथ अलग रहती हुई प्रतिदिन चित्त लगाकर जैनधर्मका पालन करने लगी || ७७ || समुद्रदत्तने यह सोचा कि धर्म श्रवण करनेसे ओर • बोद्ध भिक्षुकोंको दान देने से समय पाकर यह बुद्धकी भक्ति करने लगेगी । यही विचार कर किसी एक दिन उसने नीलीसे कहा कि हे नीली ! हमारे जो बौद्ध भिक्षु हैं वे बड़े ज्ञानी हैं, बड़े विद्वान् हैं, इसलिये, तू उन्हें आमन्त्रण कर किसी एक दिन भोजन दे । उनको भोजन देनेसे हमें बहुत सुख होगा ॥७८-७९ ॥ नीलीने यह बात स्वीकार करली, भिक्षुकोंको आमन्त्रण दिया गया, वे आये और नीलीने सबको भोजन दिया परन्तु उनकी अनेक प्राणियोंको नाश करनेवाली एक एक जूती बारीक कतर कतर कर घी बूरेमें पागकर खिला दी ||८०|| जब वे भिक्षु भोजन करके जाने लगे और उन्हें एक एक जूती नहीं मिली तब उन्होंने क्रोधित होकर पूछा कि प्राणों का हित करनेवाली हमारी एक एक जूती कहाँ है || ८१|| इसके उत्तरमें नीलीने कहा कि आप तो बड़े ज्ञानी और विद्वान् : हैं आप ही बतलाइये कि आपकी जूती कहाँ है ? यदि आपमें इतना ज्ञान नहीं है तो फिर विद्वान् लोग आपको पूज्य कैसे मान सकते हैं । यह सुनकर भिक्षुकोंने कहा कि हमलोगों में ऐसा ज्ञान नहीं है । तब नीलीने कहा कि तो सब जूतियाँ आप लोगोंके पेटमें हैं। यदि आपको मेरे वचनोंका विश्वास न हो तो वमन कर डालिये। इसपर उन्होंने जबर्दस्ती वमन किया और उसमें चर्म के छोटे टुकड़े दिखाई दिये ॥ ८२-८४ ॥ तदनन्तर बड़े निरादरके साथ और लज्जासे व्याकुल होकर वे सब भिक्षु चले गये । नीलीके इस कर्तव्यसे और भिक्षुकोंका मान खण्डन हो जानेके कारण श्वसुरके घरके सब लोग नीलीसे रुष्ट हो गये ॥ ८५॥ क्रोधित होकर सागरदत्तकी बहिन आदिने पापकर्मके उदयसे नीलीके लिये पर मनुष्यके साथ गमन करनेका. महादोष लगाया ||२६|| जब www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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