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________________ ३१४ श्रावकाचार-संग्रह श्रेष्ठी समुद्रदत्तात्यस्तिष्ठत्येव पुरेऽपरः । भार्या सागरदत्ताख्या जाता तस्य सुखप्रदा ॥६१ पुत्रः सागरदत्तो हि तयोर्जातोऽतियौवने । गतो जिनालयं सोऽपि मित्रेण सममेकदा ॥६२ कायोत्सर्गान्विता नीली वस्त्राभरणमण्डिता । महापूजां विधायो,जिनस्याने स्थिता स्वयम् ॥६३ आलोक्य स्वयं तेन पृष्टो मित्रस्तदा स्फुटम् । एषा किं देवता काचित् रूपलावण्यसंयुता ॥६४ तदाकाशु मित्रेण प्रियदत्तेन भाषितम् । श्रेष्ठिनो जिनदत्तस्य नीली पुत्रीयमेव हि ॥६५ तद्रूपालोकनाज्जातो तीव्रासक्तः स तत्क्षणम् । ताडितः कामबाणेन हृदये रागहेतुतः ॥६६ रूपलावण्यसोमेयं कथं लभ्या मयाऽधुना । परिणेतुं महापुण्या चेत्यभूच्चिन्तया कृशः ॥६७ ज्ञात्वा समुद्रदत्तेन तत्पुत्रो भणितस्तदा । मुक्त्वा जैनं खु हे पुत्र ! पुत्रीं नैव ददाति भो ॥६८ श्रेष्ठययं जिनदत्ताख्यो मातङ्गानिव पश्यति । अस्मान् कथं स्वपुत्री स परिणेतुं ददाति वै ॥६९ पर्यालोच्य ततो जातौ श्रावको तौ मुनीश्वरात् । कौटिल्येन जिनेन्द्रस्य शासने धर्मवीपको ॥७० परिणेतुं प्रदत्ता सा पुत्रिका तस्य श्रेष्ठिना । त्यक्त्वा मिथ्यात्वसर्वस्वं गृहीतजिनधर्मतः ॥७१ नीत्वा नीली स्वयं गेहे निषिध्य गमनं पुनः । पितगृहे ततो जातौ बुद्धभक्तौ कुमागंगौ ॥७२ ज्ञात्वा तद्वचनं श्रेष्ठी जगादेयं न मे सुता। जाता वा पतिता कूपे नीता वा च यमेन वै ॥७३ दरं क्षिप्तान्धकूपादौ पुत्री सन्मृत्युहेतवे । न च दातुं कुमिथ्यात्वाधिष्ठिताय जडात्मने ॥७४ सुशोभित नीली नामकी पुत्री थी ॥६०॥ उसी नगरमें एक समुद्रदत्त नामका दूसरा सेठ रहता था और उसको सुख देनेवाली उसकी सेठानीका नान सागरदत्ता था ॥६११॥ उन दोनोंके सागरदत्त नामका पुत्र था । वह सागरदत्त अत्यन्त यौवनावस्थामें किसी एक दिन अपने किसी मित्रके साथ जिनालयमें गया था। वहाँपर सेठ जिनदत्तकी पुत्री नीली वस्त्राभरणोंसे सुशोभित होकर भगवान् की पूजा कर भगवान्के ही सामने कायोत्सर्ग धारण कर खड़ी थी ॥६२-६३॥ उसे देखकर सागरदत्तने अपने मित्रसे पूछा कि रूप और लावण्यसे सुशोभित क्या यह कोई देवता है ? ॥६४॥ सागरदत्तकी यह बात सुनकर उसके मित्रने कहा कि यह देवता नहीं है, किन्तु सेठ जिनदत्तकी पुत्री नीली है ॥६५।। उसके रूपको देखकर वह सागरदत्त उसमें तीव्र आसक्त हो गया, वह कामवाणसे बींधा गया और उसका हृदय रागसे भर गया ॥६६।। वह रात-दिन यही चिन्तवन करने लगा कि यह नीली रूप-लावण्य को सीमा है और महा पुण्यवती है, मैं इसके साथ किस प्रकार विवाह करूं ? इसी चिन्तामें वह रात-दिन कृश होने लगा ॥६७॥ उसके पिता समुद्रदत्तने यह बात जानकर अपने पुत्र सागरदत्तसे कहा कि हे पुत्र ! जिनदत्त जैनको छोड़कर और किसीको अपनी पुत्री नहीं देगा ॥६८॥ वह जिनदत्त सेठ हम लोगोंको चण्डालके समान देखता है फिर भला विवाहके लिये वह हमें अपनी कन्या देगा? ॥६९|| यही सोच-विचारकर वे दोनों बाप बेटे कपट धारण कर किसी मुनिराजके पास गये और वहाँ पर जिनधर्म धारण कर दोनों ही धर्मको बढ़ानेवाले श्रावक बन गये ॥७०।। सागरदत्तने मिथ्यात्व छोड़ दिया है और जिनधर्म धारण कर लिया है यह सब जगह प्रसिद्ध हो गया और फिर सेठ जिनदत्तने भी सागरदत्तके लिये अपनी पुत्री दे दी ॥७१॥ जब नीली सागरदत्तके घर चली गई तब उन्होंने उसे अपने पिताके घर जानेसे रोक दिया और फिर वे दोनों कुमार्गगामी बाप बेटे बुद्धके भक्त बौद्ध हो गये ॥७२।। जब यह बात जिनदत्तने सुनी तब वह बहुत पश्चात्ताप करने लगा और कहने लगा चि मेरे पुत्री हुई ही नहीं थी, अथवा होकर कूएंमें पड़ गई अथवा मर गई ।।७३॥ पुत्रीको अन्धे कूएमें डाल देना अच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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