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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार तयक्तंपञ्चव्यतोपातं ब्रह्मचर्यमणुवतम् । धत्ते यः प्राप्य नाकं च राज्यं गच्छति नितिम् ॥५२ नरकगृहप्रतोली धर्मवृक्ष कुठारौं दुरितवनकुष्टि बन्धुविध्वंसवां त्वम् । सुरगतिशिवगेहेष्वर्गला साधुनिद्यां त्यज सकलपरस्त्री स्थूल ब्रह्म विषाय ॥५३ अखिलकुजनसेव्यां मधमांसादिसक्तामशुभभुवनभूमि तस्करी धर्मरत्ने। कुगतिकुमतिदा त्वं मुक्तिमार्गार्गलां भो त्यज भुवि बुध वेश्यां शोलगेहं प्रविश्य ॥५४ स्वर्मोक्षककरं यशःशुभप्रदं त्यक्तोपमं निस्पहं सद्धर्मामलरत्नभाण्डमसमं पापस्य निशिकम् । सत्सौख्याकरमेकमेव शुचि धोरैः सदा सेवितं संसाराम्बुधितारकं हि भज भो त्वं सारशीलं शुभम् ॥५५ ब्रह्मचर्यफलाज्जीवः प्राप्य पूजामिहामरैः । कृताममुत्र लोकेऽपि स्वर्गमुक्त्यादिकं व्रजेत् ॥५६ शीलमाहात्म्यतः केन फलं लब्धं निरूपय । भगवन्निह लोकेऽपि विधायानुग्रहं मम ॥५७ । शृणु धीमन्नहं वक्ष्ये कथां शोलसमुद्भवाम् । एकचित्तान्वितो भूत्वा नील्याः पुण्यफलप्रदाम् ॥५८ लाटदेशे मनोज्ञेऽस्मिन् वसुपालो नरेश्वरः । पत्तने भृगुकच्छाख्ये जातः पुण्योदयात्सुधीः ।।५९ जिनदत्तो भवेत् श्रेष्ठी जिनदत्ताभिषा प्रिया । पुत्री जाता तयोर्नोली रूपशीलसमन्विता ॥६० होता है ॥५१॥ जो मनुष्य इन पांचों अतिचारोंका त्यागकर ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करता है वह स्वर्गका राज्य पाकर अन्तमें मुक्त होता है ॥५२॥ हे भव्य ! परस्त्रीका सेवन नरकरूपी घरकी देहली है, धर्मरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुठार (कुल्हाड़ी) के समान है, पापरूपी वनको बढ़ानेके लिये वर्षाके समान है, भाई बन्धु आदिको नाश करनेवाला है, देवगति और स्वर्गरूपी घरको बन्द करनेके लिये अर्गल (वेंडा) के समान है और सज्जन पुरुषोंके द्वारा सदा निंद्य है इसलिये हे भव्य ! स्थूल ब्रह्मचर्य धारण कके तू सब प्रकारकी परस्त्रियोंका त्याग कर ॥५३॥ इसी प्रकार वेश्या भी मद्य मांसादिकमें सदा आसक्त रहती है, संसारमें जितने दुष्ट हैं सब उसे सेवन करते हैं, पापरूपी वनको उत्पन्न करनेके लिये भूमिके समान है, धर्मरूपी रत्नोंकी चोर है, दुर्गति और दुर्बुद्धियोंको उत्पन्न करनेवाली है, और मोक्षमार्गको रोकनेके लिये अर्गलके समान हैं। इसलिये हे विद्वन् ! तू शीला घरमें प्रवेशकर इस वेश्या सेवनका भी सदा त्याग कर ।।५४।। यह शीलरत्न स्वर्ग मोक्षको देनेवा । है, यश और पुण्यको बढ़ानेवाला है, संसारमें इसकी कोई उपमा नहीं, यह अत्यन्त निस्पृह , सद्धर्मरूपी निर्मल रत्नोंका पिटारा है, पापोंका नाश करनेवाला है, उत्तम सुख देनेवाला है, अत्यन्त पवित्र है, धीरवीर पुरुषोंके द्वारा ही यह सेवन किया जाता है, अत्यन्त शुभ है, सार है और संसाररूपी महासागरसे पारकर देनेवाला है। इसलिये हे भव्य ! तू ऐसे शीलवतका पालन कर ॥५५॥ ये जीव ब्रह्मचर्य व्रतके फलसे इस लोक में भी देवोंके द्वारा पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं और परलोकमें भी स्वर्ग मोक्षके स्वामी होते हैं ॥५६॥ प्रश्न-हे भगवन् ! इस शीलवतके माहात्म्यसे इसी लोकमें किसको फल मिला है उसकी कथा कृपाकर मेरे लिये कह दीजिये ॥५७॥ उत्तर-हे चतुर ! तू चित्त लगाकर सुन । मैं पुण्य फल देनेवाली शीलवतको कथा कहता हूँ ॥५८|| इसी मनोहर ललाट देशके भृगुकक्ष नामके नगरमें पुण्यकर्मके उदयसे बुद्धिमान् राजा वसुपाल राज्य करता था ।।५९|| उसी नगरमें एक जिनदत्त नामका सेठ रहता था। जिनदत्ता उसकी सेठानीका नाम था। उन दोनोंके रूप और शीलसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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