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________________ ३१२ श्रावकाचार-संग्रह परीषहभटेरच्चैः स्त्रीकृतोपद्रवैस्तथा। न त्यक्तं शोलमाणिक्यं यैश्च तेभ्यो नमोऽस्तु मे ॥३९ किमत्र बहुनोक्तेन त्वं शोलं भज सर्वथा । सारं सर्वव्रतादीनां धर्मरत्नादिसद्गृहम् ॥४० शीलं यो मतिमान् धत्ते सदातिचारप्रच्युतम् । यशः पूजां स आसाद्य स्वर्ग वा याति निर्वृतिम् ॥४१ निर्मलस्यापि शीलस्य मलसम्पादनक्षमान् । आदिश त्वं हि भो नाथ ! व्यतिचारान् ममादरात् ॥४२ शृणु भो वत्स ! ते वक्ष्ये अतीचारान् मलप्रदान् । नारीसंसर्गतो जातान मोहाद्वाप्यशुभोदयात् ॥४३ अन्यविवाहकरणं गृहीतेतरभेदतः । इत्वरिकागमनं च द्विधा स्यान्मलकारणम् ॥४४ चतुर्थोऽनङ्गक्रीडा स्यावतीचारो विरूपकः । पञ्चमः कामतीवाभिनिवेशश्च जिनैर्मतः ॥४५ परेषां यो मनुष्याणां विवाहं पापकारणम् । करोति मूढधीस्तस्य भवेद्दोषो मलप्रदः ॥४६ इच्छन्ति ये खला नूनमित्वरिकां सभर्तृकाम् । अतोचारो भवेत्तेषां रागाच्छोलवतस्य वै ॥४७ समोहन्ते शठा येऽपि परस्त्री भर्तृविच्युताम् । गणिकां वातिलोभेन व्यतीपातं भजन्ति ते ॥४८ मुक्त्वा योनि हि ये क्रीडां प्रकुर्वन्ति मुखादिके । यत्र तत्र शरीरे वा रागात्तेषामतिक्रमः ॥४९ अतितृष्णां विधत्ते यः कामसेवादिके बुधाः । अग्निवच्च न सन्तोषमतोचारं श्रयेत्स ना ॥५० परनारों तिरश्ची च सेवन्ते ये व्रतच्युताः षण्ढत्वं प्राप्य ते दुष्टाः श्वभ्रनाथा भवन्ति वै ॥५१ शीलरूपी श्रेष्ठ भण्डार मनरूपी राजाके द्वारा प्रेरणा किये गये काम और इन्द्रियरूपी चोरोंके द्वारा नहीं लूटा गया वे ही पुरुष संसारमें धन्य हैं ॥३८॥ जिन्होंने स्त्रियोंके किये हुए अनेक उपद्रवोंके होनेपर तथा सैकड़ों कठिन परीषहोंके उपस्थित होनेपर अपना शीलरूपी माणिक-रत्न नहीं छोड़ा है उनके लिये में बार-बार नमस्कार करता हूँ॥३९।। बहुत कहनेसे क्या, थोड़ेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि यह शीलवत सब व्रतोंका सार है और धर्मरूपी रत्नोंका भण्डार है इसलिये हे मित्र ! तू इसको सब तरहसे पालन कर ॥४०॥ जो बुद्धिमान अतिचार-रहित इस शीलव्रतको पालन करता है वह इस संसारमें पूजा प्रतिष्ठा पाकर अन्तमें स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करता है ।।४।। प्रश्न-हे प्रभो ! यद्यपि यह शीलवत स्वयं निर्मल है तथापि इसमें मल उत्पन्न करनेवाले अतिचारों को आप कृपाकर कहिये ॥४२॥ उत्तर-हे वत्स! सुन। इस व्रतमें मल उत्पन्न करनेवाले स्त्रियोंके संसर्गसे और अत्यन्त अशुभ कर्मके उदयसे उत्पन्न हुए अतिचारोंको में कहता हूँ॥४३।। अन्य विवाहकरण, परिग्रहीता इत्वरिकागमन, अपरिग्रहीता इत्वरिकागमन, अनंगक्रीड़ा, और काम तीव्राभिनिवेश ये पांच ब्रह्मचर्याणुव्रतके अतिचार कहलाते हैं ॥४४-४५॥ जो अज्ञानी जीव दूसरोंके पुत्र पुत्रियोंके विवाह करते हैं उनके ब्रह्मचर्यमें मल उत्पन्न करनेवाला अन्यविवाहकरण नामका पहिला अतिचार लगता है ॥४६॥ जो पुरुष रागपूर्वक किसीकी विवाहिता व्यभिचारिणोको इच्छा करते हैं उनके शोलव्रतमें परिग्रहोता इत्वरिकागमन नामका दुसरा अतिचार होता है ।।४७।। जो मूर्ख पतिरहित परस्त्रियोंको अथवा अविवाहित वेश्या आदिकोंकी इच्छा करते हैं उनके व्रतमें अपरिग्रहीता इत्वरिकागमन नामका तीसरा अतिचार लगता है ॥४८॥ जो पुरुष योनिको छोड़कर रागपूर्वक मुखादिकमें क्रीड़ा करते हैं अथवा शरीरपर यत्र तत्र क्रीड़ा करते हैं उनके अनंगक्रीड़ा नामका चौथा अतिचार लगता है ॥४९॥ जो बुद्धिमान कामसेवनमें अत्यन्त तृष्णा रखता है और अग्निके समान जिसे सन्तोष होता ही नहीं, उसके कामतीवाभिनिवेश नामका पाँचवाँ अतिचार लगता है ॥५०॥ जो मूर्ख अपने शोलवतको छोड़कर परस्त्रीका अथवा किसी तिर्यचिनीका सेवन करता है वह परलोकमें नपुंसक होकर नरकका स्वामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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