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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार मद्यलालांबुसक्लिष्टं खपरं मण्डला इव । वेश्यास्यं ये हि लिह्यन्ति श्वानपुत्राः कथं न ते ॥२५ निषेवन्ते हि नारी ये जातिहीनां कुमार्गगाः । सम्प्राप्य जातिनाशं ते गर्दभीमश्ववत्तथा ॥२६ जातिहीनो दिवं याति धर्माचरणयोगतः । पापाना दुर्गति याति कुलजो धर्मव्यत्ययात् ॥२७ जीवन्तोपि मृता ज्ञेया शीलहीना हि मानवाः । न तिष्ठन्ति गुणास्तेषु केचिद्धो मृतके यथा ॥२८ स्वनारों यः परित्यज्य परनारी निषेवते । भुङ्क्ते मातङ्गगेहे स त्यक्त्वा स्वान्नं वरं खलः ॥२९ वेश्यादिपरनारीणां सङ्गं कुर्वन्ति येऽधमाः । मातङ्गवत् तेऽप्यस्पृश्याः भवन्ति भुवनत्रये ॥३०. . . इति मत्वा हि भो मित्र ! पररामां सदा त्यज । पूर्व कृत्वातिसन्तोषं पुण्यदं स्वस्थ रामया ॥३१ ब्रह्मचर्य चरेद्यस्तु मुक्तिस्त्रीचित्तरञ्जकम् । प्राप्य स्वर्ग च राज्यं स मुक्तिनाथो भवेद् ध्रुवम् ॥३२ एकचित्तेन ये शीलं पालयन्ति बुधोत्तमाः । सेवां कुर्वन्ति देवेन्द्रास्तेषां भृत्या इव स्वयम् ॥३३ दिनैकं ब्रह्मचयं यो विधत्तेऽभयदानतः । वै नवलक्षजीवानां तस्य पुण्यं न वेदम्यहम् ॥३४ शोलयुक्त इहामुत्र भवेत्पूज्यः पदे पदे । नुदेवखेचरेन्द्रश्च नाकमोक्षाधिपः स ना ॥३५ कुर्वन्ति भुवने शीलाभरणं याः स्त्रियोऽमरैः । प्राप्य पूजामिहामुत्र यान्ति षोडशमे दिवे ॥३६ मन्ये स एव पुण्यात्मा शोलरत्नं सुनिर्मलम् । स्त्रीकटाक्षादिलुण्टाकैर्न हतं यस्य भो हठात् ॥३७ ते धन्याः शीलसद्रत्नं येषां सारं न लुण्ठितम् । कामेन्द्रियादिचौरैश्च मनोराजादिप्रेरितैः ॥३८ ॥२३-२४॥ जिस प्रकार कुत्ता खप्परको चाटता है उसी प्रकार जो नीच मद्यकी लारसे झरे हुए वेश्याके मुंहको चाटते हैं उन्हें श्वानपुत्र (कुत्ते) क्यों नहीं कहना चाहिये ॥२५॥ जिस प्रकार घोड़ा गर्दभीका सेवनकर अपनी जातिको नष्ट करता है उसी प्रकार जो. कुमार्गगामी पुरुष नीच जातिको स्त्रियोंका सेवन करते हैं वे खच्चरोंके समान अपनी जातिको नष्टकर देते हैं क्योंकि खच्चरोंके फिर सन्तान नहीं होती ॥२६|| धर्मरूप आचरण करनेसे जातिहीन पुरुष भी स्वर्गमें जा उत्पन्न होता है किन्तु पाप करनेसे वा धर्मका नाश करनेसे यह प्राणी दोनों लोकोंमें दुर्गतिको प्राप्त होता है ॥२७|| जो मनुष्य शीलरहित हैं वे जीवित रहते हुए भी मरे हुएके समान है क्योंकि जिस प्रकार किसी मरे हुए पुरुषमें कोई गुण नहीं ठहर सकते, उसी प्रकार उस शीलरहित पुरुषमें भी कोई गुण नहीं ठहर सकते ॥२८॥ जो मूर्ख अपनी स्त्रीको छोड़कर परस्त्रीका सेवन करते हैं वे अपने उत्तम भोजनोंको छोड़कर चांडालके घर सबका उच्छिष्ट खाते हैं ॥२९॥ जो नीच पुरुष वेश्याओंका वा परस्त्रियोंका समागम करते हैं वे चांडालके समान तीनों लोकोंमें अस्पृश्य (न छूने योग्य) गिने जाते हैं ॥३०॥ यही समझकर हे मित्र ! पहिले अपनी स्त्रीमें ही पुण्य बढ़ानेवाला सन्तोष धारणकर और फिर सदाके लिये परस्त्रीका त्याग कर ॥३१॥ जो मनुष्य मुक्तिरूपी स्त्री के चित्तको प्रसन्न करनेवाला ब्रह्मचर्य पालन करते हैं वे स्वर्गका साम्राज्य पाकर अन्तमें मक्तिके स्वामी होते हैं ॥३२॥ जो उत्तम विद्वान् एकाग्रचित्तसे शीलका पालन करते हैं उनकी इन्द्र भी आ कर स्वयं सेवा करता है ।।३३।। जो एक दिन भी ब्रह्मचर्य पालन करता है वह नौ लाख जीवों के अभयदान देनेका पुण्य प्राप्त करता है ।।३४।। शीलवान पुरुष इस लोक और परलोकमें मनुष्य, देव, विद्याधरोंके द्वारा पद पदपर पूज्य होता है और अन्तमें स्वर्ग-मोक्षका स्वामी होता है ॥३५॥ इस संसारमें जो स्त्रियां शीलरूपो आभरणको धारण करती हैं वे देवोंके द्वारा पूजा प्रतिष्ठा पाकर सोलहवें स्वर्गमें जाकर देव होती हैं ॥३६॥ जिसका निर्मल शीलरूपी रत्न स्त्रियोंके कटाक्षरूपी लुटेरोंके द्वारा नहीं हरा गया, वही पुरुष संसारमें पुण्यवान है ऐसा में मानता हूँ॥३७॥ जिनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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