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________________ ३०८ श्रविकीचार-संग्रह तैस्तस्य च नयनाग्रे तृणांगुल्यादिकं घृतम् । परीक्षणाय पश्यत्स स्थितो मौनं विधायं वै ॥७९ अर्द्धरात्रौ पुनस्तेषां सवं दृष्टं घनादिकम् । गुहायामन्धकूपे च तेन प्रच्छन्नयोगतः ॥८० प्रभाते मार्यमाणोऽपि तलारस्तेन रक्षितः । रात्रिदृष्ट समावेद्य राज्ञस्तापसवृत्तकम् ॥८१ स तपस्वी तलारेण मारितोऽत्यन्तकोपतः । अनेकवधबंघादिच्छेदनैश्च कदर्थनैः ॥८२ मृत्वा सोऽपि महादुःखं तीव्रं वाचामगोचरम् । अनुभूयः गतः पापाद दुर्गंत बहुयोनिजाम् ॥८३ तापसस्य कथां ज्ञात्वा पापभीतैर्महाजनैः । अदत्तं तृणमात्रं च न ग्राह्यं दन्तशुद्धये ॥८४ अन्ये ये बहवो नष्टाः शिवभूत्यादयोऽषमाः । चौर्याच्च कः कथां तेषां गदितुं स्यात्क्षमो भुवि ॥८५ अशुभ सकलपूर्णां घोरदुःखादिखानि, परधनहरणाच्च दुर्गीत तापसोऽगात् । विविधकुवधबन्धं प्राप्य त्यक्त्वा च प्राणान् इह दुरितकुकीति पापतोऽमुत्र मूढः ॥८६ इति श्री भट्टारक सकलकीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे अदत्तादानविरतिव्रतवारिषेण-तापसकथाप्ररूपको नाम चतुर्दशमः परिच्छेदः ||१४|| भी नहीं हटा और कहने लगा कि मुझे रात्रिमें कुछ दिखाई नहीं देता है || ७८ || उन तपसियों ने उसके नेत्रोंके सामने बहुतसी उंगली दिखाकर पूछा, बहुतसे घास पात आदि रक्खे और सब तरहसे उसकी परीक्षा करनी चाही परन्तु वह ब्राह्मण तो मौन धारणकर चुप हो रहा ॥ ७९ ॥ आधी रात के समय उस ब्राह्मणने देखा कि सब तपसी धन ला लाकर एक अन्धे कूएमें रख रहे हैं । ब्राह्मणने छिपकर सब कृत्य देख लिया ||८०|| सबेरे ही वह कोतवाल मारा जानेवाला था परन्तु उस ब्राह्मणने आकर उसकी रक्षा की और उस तपसी चोरको पकड़वाया । वहाँपर उसे ar बन्धन आदि अनेक दुःख भोगने पड़े और ऐसे ऐसे महा दुःख भोगने पड़े जो वचनसे भी नहीं कहे जा सकते। उन सबको भोगकर और कोतवालके द्वारा मारा जाकर उस पापीने अनेक दुर्गतियों में परिभ्रमण किया ||८१-८३ ॥ तपसीकी यह कथा सुनकर पापोंसे डरनेवाले महाजनोंको दाँतों को साफ करनेके लिये विना दिया हुआ एक तृण भी नहीं लेना चाहिये || ८४|| इस चोरी करनेके कारण शिवभूति आदि और भी बहुतसे नीच पुरुष नष्ट हुए हैं । इस संसार में उन सबकी कथाओंको भला कौन कह सकता है ||८५|| देखो, दूसरेका धन हरण करनेके कारण मूर्ख तपसीको वध वन्धन आदिके अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़े और उन्हीं पापोंके कारण प्राणोंका त्यागकर सब तरह के पापोंसे परिपूर्ण घोर दुःखोंकी खानि तथा पाप और अपकीर्तिको बढ़ानेवाली ऐसी अनेक दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करना पड़ा । यही समझकर चोरी करनेका त्याग सदाके लिये कर देना चाहिये ॥८६॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तर श्रावकाचारमें अचौर्याणुव्रतका स्वरूप और वारिषेण तथा तपसीकी कथाको कहनेवाला यह चौदहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ || १४ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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