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________________ पन्द्रहवाँ परिच्छेद धर्मनाथजिनं देवं धर्मदं धर्मनायकम् । सर्वधर्ममयं धर्मकरं सद्धर्महेतवे ॥१ अणुव्रतं प्रवक्ष्येऽहं चतुर्थं ब्रह्मसंज्ञकम् । तृतीयं व्रतमाख्याय सर्वसौख्याकरं परम् ॥२ प्रणीतं जिननाथेन सारं तुर्याणुसद्वतम् । पवित्रमङ्गिनां सर्वपरस्त्रीत्यागलक्षणम् ॥३ स्वरामयातिसन्तोषं कृत्वा योऽत्र हि पश्यति । मातृवत्पररामां स स्थूलं शीलवतं भजेत् ॥४ चतुर्थ व्रतमादाय कृत्वा वैराग्यमञ्जसा । किपाकफलवन्नारों सुरूपामपराम् त्यज ॥५ परभार्यादिसंसर्गात् कलङ्घ जायते नृणाम् । व्रतभङ्गो भवेच्चैव यावज्जीवायशःप्रदम् ॥६ संसर्ग हि न कुर्वन्ति क्षणमेकं सुधोजनाः । कलङ्ककारणं निन्द्यं परेषां रामया सह ॥७ नवनीतसमं ज्ञेयं मनःस्त्री चाऽनलोपमा। पुंसां कथं भवेत्तद्धि स्थिरं तप्तं खु स्व्यग्निना ॥८ वरमालिड़िता क्रुद्धाः सपिणी प्राणहारिणी । परस्त्री न च रूपाढचेहामुत्र प्राणनाशिनी ॥९ परस्त्रियः समं पापं न भूतं न भविष्यति । नास्ति लोके महानिन्धं पुंसां सप्तमश्वभ्रदम् ॥१० परस्त्रिया समं भोगो भवेन्मा वा शठात्मनाम् । तद्वाञ्छाचिन्तया तेषां महापापं प्रजायते ॥११ परभार्यां परिप्राप्य निर्जनेऽत्र क्वचिच्छठः । कथं संलभते सौख्यं वधमाशंक्य चात्मनः ॥१२ जो धर्मके देनेवाले हैं, धर्मके स्वामी हैं, पूर्ण धर्ममय हैं और धर्मकी खानि हैं ऐसे श्री धर्मनाथ जिनेन्द्रदेवको में केवल धर्मकी सिद्धिके लिये नमस्कार करता हूँ ॥१॥ अब मैं तीसरे अचौर्याणुव्रतका स्वरूप कहकर समस्त सुखोंको देनेवाले और परम उत्कृष्ट ऐसे चौथे ब्रह्मचर्य अणुव्रतका स्वरूप कहता हूँ ॥२॥ परस्त्रोके त्याग करनेरूप यह चौथा ब्रह्मचर्याणुव्रत श्री जिनेन्द्रदेवने सबमें सार बतलाया है, यही व्रत समस्त जीवोंके लिये परम पवित्र और श्रेष्ठ है |॥३॥ जो अपनी स्त्रीमें सन्तोष रखकर अन्य स्त्रियोंको माताके समान देखता है, उसके यह स्थूल शीलवत या स्थूल ब्रह्मचर्य अथव! ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है ॥४॥ इस चौथे ब्रह्मचर्य अणुव्रतको पालनकर जीवोंको विरक्त होना चाहिये और किंपाकफलके समान परस्त्रियोंका त्याग कर देना चाहिए ॥५॥ परस्त्रीके संसर्गसे मनुष्योंको कलंक लगता है और जीवनपर्यन्त अपयशको देनेवाला व्रत भंग होता है ॥६॥ बुद्धिमान पुरुषोंको परस्त्रियोंके साथ एक क्षणभर भी संसर्ग नहीं करना चाहिये। क्योंकि परस्त्रियोंका संसर्ग कलंक उत्पन्न करनेवाला है और अत्यन्त निंद्य है ॥७॥ पुरुषोंका मन मक्खनके समान है और स्त्री अग्निके समान है फिर भला दोनोंका संसर्ग होनेपर वे दोनों कबतक स्थिर रह सकते हैं ॥८॥ केवल इस लोक में प्राणोंको हरण करनेवाली क्रोधित हुई सर्पिणीका आलिंगन कर लेना अच्छा, परन्तु इस लोक प्राणोंको हरण करनेवाली और परलोकमें प्राणोंको नाश करनेवाली परस्त्रीका आलिंगन करना अच्छा नहीं ॥९॥ इस संसारमें परस्त्रीसेवनके समान अन्य कोई पाप न हुआ है न हो सकता है, संसारमें इसके समान और कोई महानिद्य काम नहीं है और न इसके समान मनुष्योंके दुःख देनेवाला अन्य कोई काम है ॥१०॥ मूर्ख लोगोंको परस्त्रीके साथ भोगोंकी प्राप्ति हो या न हो, किन्तु परस्त्रीकी इच्छा और चिन्तासे ही उन्हें महापाप लग जाता है ।।११।। जो मूर्ख किसी निर्जन स्थानमें परस्त्रीके समीप जाता है वह सुखी किस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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