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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ३०७ पश्चात्तापं विधायोच्चः स्थितस्त्यक्तधनादिकः । गच्छता भो मयाऽटव्यां दृष्टमेकं प्रकुकुटम् ॥६६ मयैकस्मिन्नगे तुङ्गे समूहो मिलितो निशि । पक्षिकाणां प्रबुद्धेन पक्षिणा भाषितं तदा ॥६७ रे पुत्राः अतिवृद्धोऽहं गन्तुं शक्नोमि नैव हि । करोमि भवदीयानां पुत्राणां भक्षणं क्वचित् ॥६८ ततो मम मुखं बध्वा यूयं गच्छत निश्चितम् । प्रभाते ते पुनस्तस्य मुखं बध्वा गताः स्वयम् ॥६९ गतेषु तेषु सर्वेषु चरणाभ्यां स्वबन्धनम् । मुखादुत्तार्य वृद्धन भक्षितास्तेऽपि बालकाः ॥७० तेषामागमने काले मुखे संयोज्य बन्धनम् । भूत्वा क्षीणोदरः पश्चात् कौटिल्येन स्थितो हि सः ॥७१ ततः पुरगतेनैव मया दृष्टः प्रकुर्कुटः । तपस्विरूपमादाय स्थितश्चौरोऽतिपापधीः ॥७२ मस्तकस्योपरि दोामूद्ध धृत्वा बृहच्छिलाम् । भ्रमत्यपसराख्यो हि प्राहोरात्रि स तत्पुरे ॥७३ गर्तादिनिर्जनस्थाने जनं हेमादिभूषितम् । नमन्तं शिलया हत्वा हेमं गृह्णाति लोभतः ॥७४ इत्येवं हि समालोक्य कोट्टपाल विचार्यताम् । संसारे दुखदं पापं श्लोकोऽयं संकृतो मया ॥७५ बालमस्पशिका नारी बाह्मणोऽतृणग्राहकः । वने गद्धश्च पक्षी स्याद् भ्रमेदपसरः पुरे ॥७६ इत्येवं कथयित्वा स तत्कथानां चतुष्टयम् । धीरयित्वा च सन्ध्यायां गतस्तापससन्निधिम् ।।७७ सः तपस्विनरैस्तस्मास्थितो मायान्वितो द्विजः । निर्घाटितोऽपि न याति भूत्वा रात्र्यंध एव सः ॥७८ संसारमें जो जबर्दस्ती दूसरेका धन ले लेते हैं वे अनेक दुर्गतियोंके दुःख भोगते हैं ॥६५।। सब धन नष्ट हो जानेके कारण मुझसे बहुत पश्चात्ताप हुआ परन्तु अन्तमें चुप हो जाना पड़ा। फिर में वहाँसे अकेला चल पड़ा। चलते चलते देखा कि किसी पवंतपर जंगलमें एक गीध रहता था उसी वृक्षपर रातको बहुतसे पक्षी आकर ठहरते थे। जब अन्य पक्षियोंस उसे हटाना चाहा तो उस बूढ़े गोधने कहा कि "हे प्रभो ! मैं अत्यन्त बूढ़ा हूँ कहीं दूसरी जगह जानेको सामर्थ्य मुझमें नहीं है। कदाचित् मैं तुम्हारे बच्चोंका भक्षण कर लूँ यह तुम्हें डर है तो तुम सब लोग मेरी मुख (मेरी चोंच) बाँध दो और फिर निश्चिन्त होकर चले जाओ।" उसकी यह बात सबने मान ली सवेरे ही उसका मुह बाँधकर सब पक्षी चले गये ॥६६-६९।। उन पक्षियोंके चले जानेपर उस बूढ़े गीधने अपने पंजोंसे चोंचके बन्धनको उतारा और पक्षियोंके बच्चोंको खा डाला ||७०॥ जब उन पक्षियोंके आनेका समय हुआ तब उस गीधने पंजोंसे वह बन्धन चोंचके ऊपर चढा लिया और फिर खालीसा पेट दिखलाता हुआ कपटपूर्वक चुपचाप बैठ गया ||७१॥ यह कृत्य देखकर मैं आगे चला। मार्गमें मैंने देखा कि एक अपसर नामका पापी चोर तपसीका रूप धारण कर खड़ा है। उसने अपने मस्तकके ऊपर दोनों हाथ ऊँचे कर रक्खे थे और उन दोनों हाथों में एक पत्थरकी शिला ले रक्खी थी। इस प्रकार शिला लिये वह रातदिन फिरा करता था ॥७२-७३।। वह प्रायः गढ़े आदि निर्जन स्थानमें जाकर खड़ा होता था, जब कभी सुवर्णालंकारोंसे सुशोभित कोई धनी आदमी आकर उसे नमस्कार करता तभी वह उसके ऊपर वही शिला पटक देता था और लोभक वश हो इस प्रकार उसे मारकर उसका सब धन हरणकर लेता था ॥७४॥ इस प्रकार संसारभरको दुःख देनेवाले चार पापियोंको देखकर हे कोट्टपाल, मैंने यह श्लोक बनाया है ।।७५॥ इस संसार में अपने बच्चेको भी स्पर्श न करनेवाली स्त्री, तृणको भी वापस लौटा देनेवाला ब्राह्मण, वनमें रहनेवाला बूढ़ा गीध और अपसर नामका चोर भी पुरमें फिरा करता है ।।७६॥ इस प्रकार उस ब्राह्मणने उस कोतवालसे चार कथाएँ कहीं तथा उसको धैर्य बंधाकर सायंकालके समय वह स्वयं उस तपसीके पास गया ।।७७|| वह ब्राह्मण छल कपटकर वहीं बेठ गया, हटानेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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