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________________ श्रावकाचार-संग्रह वृत्तान्तं कथितं तेन कोट्टपालेन तस्य तत् । विप्रेणापि पुनः पृष्टः सोऽपि कि कोऽपि चास्ति ना ॥५१ अत्यन्तनिस्पहो लोके तेनोक्तं चास्ति तापसः । महातपस्विनस्तस्य नैतत्सम्भाव्यते स्फुटम् ॥५२ ।। प्रोक्तं द्विजेन सोऽपि स्याच्चौरोऽत्यन्तनिःस्पृहात् । शृणु मित्र मदीयां त्वं कथां संवेगकारिणीम् ॥५३ ममैव ब्राह्मणी जाता ख्याता सातिमहासती । अन्येषां पुरुषाणां चास्पृशन्ती कायमेव भोः ॥५४ शरीरं निजपुत्रस्य प्रच्छाद्य कपटेन सा । स्तनं ददाति निःशीला पापिष्ठात्यन्तकौटिला ॥५५ रात्रौ स्वस्यैव गेहस्य गोपालेन समं सदा । कुकर्म विदधे पापलम्पटा विषयेषु सा ॥५६ तदकृत्यं समालोक्य जातं वैराग्यमेव मे । कृत्वा निन्दा स्वरामायाः भोगदेहगृहादिषु ॥५७ शलाका हेमजां क्षिप्य संवलार्थ विनिर्गतः । सद्वंशयष्टिकामध्ये तीर्थयात्रादिहेतवे ॥५८ अग्ने प्रगच्छतश्चैको वटुको मिलितो मम । न विश्वासं दधे तस्य यष्टिरक्षां करोम्यहम् ॥५९ तेन सा कलिता यष्टिः सर्गाभता प्रयत्नतः । कुम्भकारगृहे रात्रौ सुप्तस्तेनैकदा सह ॥६० दूरं गत्वा तृणं लग्नं तेन दृष्टं स्वमस्तके । अति जीणं ममाग्रेति कुटिलेन निरूपितम् ॥६१ हा ! हाऽन्यस्य मयादत्तं तृणमद्यैव हिसितम् । ममेत्युक्त्वा स व्याघुटय कुम्भकारगृहं गतः ॥६२ धत्वा तणं समागत्य मिलितो मे दिनात्यये । कृताशनस्य भिक्षार्थं गच्छन् सा तेन याचिता ॥६३ श्वानादिवारणार्थ सा मया तस्मै समर्पिता । निर्लोभं तं परिज्ञाय विश्वासान्वितचेतसा ॥६४ ततो यष्टि समादाय नष्टो लोभात्स दुष्टधीः । ये गृह्णन्ति परस्वं भो छला ते यान्ति दुर्गतिम् ॥६५ ब्राह्मणने फिर पूछा कि क्या इस नगरमें कोई ऐसा मनुष्य नहीं है जो अत्यन्त निस्पृह हो ? कोतवालने कहा कि हाँ है, एक तपसी है जिसके साथ अन्य बड़े-बड़े तपस्वी हैं, क्या उसके चोर होनेकी सम्भावना हो सकती है ? ॥५१-५२।। तब ब्राह्मणने कहा कि वह अत्यन्त निःस्पृह है इसलिये वही चोर है । हे मित्र ! तू संवेग उत्पन्न करनेवाली मेरी कथा सुन ।।५३।। मेरी ही ब्राह्मणी बड़ी प्रसिद्ध महासती थी। वह अपने शरीरसे दूसरे पुरुषके शरीरका स्पर्श तक नहीं होने देती थी ॥५४॥ जब वह व्यभिचारिणी पापिनी अपने पुत्रको भी दूध पिलातो थी तो कपटपूर्वक अपने शरीरको ढककर पिलाती थी ॥५५॥ परन्तु वही ब्राह्मणी विषयोंमें लंपट होकर अपने ही घरपर किसी गवालियेके साथ बड़े आनन्दसे कुकर्म करती थी ॥५६॥ हे मित्र ! उसीके कृत्यको देखकर मुझे वैराग्य उत्पन्न हुआ है। इसप्रकार उस ब्राह्मणने अपनी स्त्रीको निन्दा की तथा भोग शरीर और घर आदिको निन्दा की ॥५७।। वह ब्राह्मण फिर कहने लगा कि मैं मार्ग खर्चके लिये किसी बनी हुई लकड़ोमें थोड़ासा सोना रखकर तीर्थयात्राके लिये निकला ।।५८॥ चलते चलते मार्गमें एक ब्रह्मचारी मिला। परन्तु मैं उसका विश्वास नहीं करता था। मैं बड़े यत्नसे उस लकड़ोकी रक्षा करता था ||५९|| जिसके भीतर सोना रक्खा हुआ है ऐसी वह लकड़ी उस ब्रह्मचारीने ताड़ लो । किसी एक दिन हम दोनों रातको एक कुम्भारके घर सोए ॥६०।। सबेरे हो उठकर वहाँसे चल पड़े। दूर जाकर उसने देखा कि उसके मस्तकपर एक बहुत पुराना तृण लगा हुआ है। उसे देकखर उस दुष्टने मुझसे कहा कि "हा हा देखो, यह विना दिया हुआ तृण भेरे साथ चला आया है और टूट गया है" यह कहकर वह लौटा, उस कुम्भारके घर गया, तृणको वहाँ रक्खा और फिर शामको आकर मुझसे मिला। फिर सन्यासी भिक्षाके लिये गया और कुत्ता आदिको मारनेके लिये वह लकड़ी मुझसे मांगी ॥६१-६३।। मैंने भी उसे अत्यन्त निर्लोभ जानकर उसपर विश्वास किया और वह अपनी लकड़ी कुत्ता आदिके निवारणके लिये उसको दे दी ॥६४।। परन्तु वह दुष्ट लोभके वश होकर उस लकड़ीको लेकर न जाने कहाँ चला गया। अरे ! इस www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only .
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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