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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार तदाशक्यं धनं दातुमारब्धं लोभिना स्वयम् । तस्यासक्तेन प्रारब्धं गोमयादिक क्षणम् ॥१०३ एवं दण्डं श्रयं भुक्त्वा भाण्डागारे नृपस्य सः । मृत्वा लोभवशाज्जातः सर्पो गन्धनसंज्ञकः ॥१०४ दिव्याग्निना ततो मृत्वा कुकुटो हि समाह्वयः । जातो वने महापापोदयाद्राजादिभक्षणात् ॥१०५ ततो मृत्वा गतः श्वभ्रं तद्वनेभादिखादनात् । ततोऽतिदीर्घसंसारी जातो दुःखाकुलोऽनृतात् ॥१०६ अनतवचनयोगात्सत्यघोषः पुरोधाः, सकलभुवननिन्द्यं घोरदुःखं प्रभुक्त्वा । नृपतिकृतकुदण्डान्मृत्युमासाद्य चाग्नौ, दुरितजलप्रपूर्णे दुःखदे वै भवाब्धौ ॥१०७ वसुराजादयोऽन्ये ये श्वभ्रं च बहवो गताः । असत्यवचनान्निन्द्याज्जीवघातकराः शठाः ॥१०८ गदितुं कः कथां तेषां समर्थोऽत्र महीतले। भूरिपापकृतानां स प्रलोकादिकलङ्किताम् ॥१०९ इमां कथां समाकर्ण्य बुधैः प्राणात्यये सदा । असत्यं नैव वक्तव्यं चेहामुत्राशुभप्रदम् ॥११० सकल तकरं त्वं कीर्तिवल्लीसुनीरं, शुभवनघनमेघं सेवितं धर्मनाथैः । अमलसुखसमुद्रं बुद्धिदं सिद्धिदं च । वद शुभगतिहेतुं सत्यवाक्यं प्रमुक्त्यै ॥१११ इति श्री भट्टारक सकलकोति विरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे असत्यविरतिव्रत धनदेवसत्यघोष-कथाप्ररूपको नाम त्रयोदशमः परिच्छेदः ॥१३॥ देना प्रारम्भ किया । तब उस लोभी और पापीने फिर गोबर खाना आदि तीनों प्रकारके दण्डोंको सहा । इस प्रकार उस नीचको तोनों प्रकारके दण्ड सहन करने पड़े ॥१०२-१०३।। इस प्रकार तीनों प्रकारके दण्डोंको भोगकर वह मरा और अतिशय लोभके कारण राजाके भण्डारमें गन्धन नामका सर्प हुआ ॥१०४॥ वहाँपर वह दिव्य अग्निसे मरकर यहाँ पाप-कर्मके उदयसे किसी वनमें कुकुट नामका सर्प हुआ ॥१०५।। वहाँपर उसने किसी व्रतो राजाको काटा था इसलिये मरकर नरकमें जा उत्पन्न हुआ। इस प्रकार केवल मिथ्या भाषण करनेसे अनेक दु खोंको भोगता हुआ बहुत दिनतक संसारमें परिभ्रमण करता रहा ।।१०६॥ देखो केवल मिथ्या भाषण करनेसे ही सत्यघोष पुरोहितने तीनों लोकोमें निन्द्य ऐसे घोर दुःख सहे, राजाके दिये हुए तीनों प्रकारके दण्ड सहे और फिर मरकर पापरूपी जलसे भरे हुए तथा अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण संसार सागरमें गोते खाये ॥१०७।। इस महा निन्द्य असत्य वचनके फलसे जीवोंका घात करनेवाला मूर्ख राजा वसु आदि और भी अनेक जोव नरकमें गये हैं वे सब असत्य रूप महापापसे कलंकित थे इसलिये इस संसारमें उन सबकी कथा भी कोई नहीं कह सकता ॥१०८-१०९।। इस कथाको सुन कर विद्वान् लोगोंको इस लोक और परलोक दोनों लोकोंमें दुःख देनेवाले असत्य वचन प्राणोंका नाश होनेपर भी कभी नहीं कहने चाहिये ॥११०॥ हे वत्स ! यदि तुझे मोक्ष प्राप्त करना है तो तू सदा सत्य वचन ही बोल, क्योंकि संसारमें सत्य वचन ही समस्त श्रुतज्ञानको प्रगट करनेवाले हैं, कीर्तिरूपी बेलको बढ़ानेके लिये अच्छे पानीके समान हैं, पुण्यरूपी वनके लिये बरसाती मेघ हैं, निर्मल सुखके समुद्र हैं, बुद्धि-सिद्धिके देनेवाले हैं, शुभ गतिके कारण हैं और धर्मके स्वामी तीर्थकर भी इसकी सेवा करते हैं । इसलिये तू सदा सत्य वचन ही बोल ॥११॥ इस प्रकार भट्टारक श्रीसकलकोतिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें सत्यव्रतका निरूपण करनेवाला . तथा धनदेव और सत्यघोघकी कथाको कहनेवाला यह तेरहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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