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________________ ३०० श्रावकाचार-संग्रह आगत्य तद्विलासिन्या राज्याः कर्णे निरूपितम् । ददाति नैव सा तानि माणिक्यानि कदाचन ॥८९ साभिज्ञानं प्रदत्त्वा सा प्रेषिता निजमुद्रिका । तस्यास्तथा न दत्तानि तद्वाह्मणातिभीतया ॥९० ततस्तया जिते यज्ञोपवीतच्छुरिके तदा । साभिज्ञानद्वयं दत्त्वा प्रेषिता साऽनु तद्गहे ॥९१ कतिका ब्रह्मसूत्रं च दृष्ट्वा दत्तानि भीतया। तद्रामया विलासिन्याः शीघ्र रत्नानि पञ्च वे ॥९२ तयाऽऽगत्य प्रदत्तानि राज्यस्तानि तया पुनः । राज्ञः प्रदर्शितान्येव माणिक्यानि वराणि च ॥९३ ततोऽतिबहुसद्रलमध्ये निक्षिप्य तानि सः । आकर्ण्य गृहिलो राज्ञा भणितः सत्यहेतवे ॥९४ माणिक्यानि त्वदीयानि परिज्ञाय गृहाण रे । परीक्ष्य श्रेष्ठिना तानि गृहीतानि निजानि च ॥९५ प्रतिपन्नश्च स तासां पुरस्तोषाच्छुभोदयात् । श्रेष्ठी समुद्रदत्तो नु राज्ञा श्रेष्ठी कृतः पुरे ॥९६ सत्यसन्तोषमाहात्म्यात् किं न स्यादिह भूतले । भृत्यायन्ते सुराः नृणां राजसौख्यस्य का कथा ॥९७ ततो नृपतिना पृष्ठः सत्यघोषोऽनृताकरः । इदं कर्म कृतं मूढ त्वया वा न निरूपय ॥९८ तनोक्तं देव नात्राहं निन्धं कर्म करोमि तत् । ममेदृशं महापापं कतुं कि कर्म युज्यते ॥९९ ततो रुष्टेन भूपेन तस्य दण्डत्रयं कृतम् । गोमयेन भृतं स्थालत्रयं भक्षय निश्चितम् ॥१०० मल्लमुष्ठेदृढं घातत्रयं चाप्यद्य दुर्मते । स्वद्रव्यं सकलं देहि स्वदोषस्यातिशान्तये ॥१०१ आलोच्य तेन प्रारब्धं खादितुं गोमयं मलम् । तस्याशक्तेन तन्मुष्टिघातं सोढुं च पापतः ॥१०२ आकर कहा कि वह पुरोहितानी उन माणिकोंको किसी तरह नहीं देती है ।।८९।। इसी बीचमें रानीने उस पांसेके खेलमें पुरोहितको एक अंगूठी जीत ली थी अतएव रानीने पुरोहितके चिन्ह रूपमें वह अंगठी भेजी तथापि पुरोहितानीने ब्राह्मणके डरसे वे रत्न नहीं दिये ॥९०॥ इधर रानी ने पुरोहितजीका यज्ञोपवीत (जनेऊ) और उसमें बँधी हुई वह कैचो भी जीत ली थी इसलिये रानीने उस वेश्याके साथ चिन्हरूप में वे दोनों चीज भेजकर वे रत्न मंगाये ॥९१।। अबकी बार जनेऊ और कैंची दोनों चीजें देखकर पुरोहितानीको विश्वास हो गया और उसने शोघ्र ही वे रत्न निकालकर दे दिये ॥१२॥ वेश्याने वे रत्न लाकर रानीको दे दिये और रानोने वे बहुमूल्य माणिक राजाको दिखाये ॥९३।। अब राजाने उस सेठकी भी परीक्षा लेनी चाही। इसलिये उसने अपने घरके बहुतसे माणिकोंमें मिलाकर वे माणिक रख दिये और सेठको बुलाकर कहा कि इनमें जो माणिक तुम्हारे हों वे परीक्षा करके निकाल लो। तब सेठने अपने माणिक छाँट लिये ॥९४-९५।। सागरदत्तके इस कार्यसे राजाको बहुत सन्तोष हुआ। शुभ कर्मके उदयसे सागरदत्त सेठको अपने नगरका राजश्रेष्ठी बना लिया ॥९६॥ सो ठीक ही है क्योंकि सत्य और सन्तोषके माहात्म्यसे इस संसारमें क्या क्या प्राप्त नहीं होता है। सत्यके माहात्म्यसे देव भी सेवक समान हो जाते हैं फिर मनुष्योंको राज्यके सुखकी तो बात ही क्या है ॥९७॥ तदनन्तर राजाने महा झूठ बोलनेवाले सत्यघोषसे पूछा कि बता तू यह काम किया है या नहीं ॥९८।। इसके उत्तर में पुरोहितने कहा कि हे देव ! मैं ऐसा निंद्य कर्म नहीं कर सकता। क्या मैं ऐसा महा पाप करने वाला काम कर सकता हूँ ? ॥९९।। तदनन्तर महाराज उसके कामसे बहुत ही क्रोधित हुए और उन्होंने उसके लिये तीन प्रकारका दण्ड निश्चित किया। या तो वह तीन थाली गोबरकी खावे, या वह दुर्मति किसी मल्लके तीन घूसे खावे अथवा उस दोषको शान्त करनेके लिये अपना सब धन दे देवे ॥१००-१०१।। पुरोहितने सोच विचारकर पहिले गोबर खाना प्रारम्भ किया। जब वह उसे न खा सका तब मल्लके घूसे खाये, उनकी भी पूरी चोट न सह सका तब अपना सब धन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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