SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदहवाँ परिच्छेद अनन्तं श्रीजिनं वन्दे अन्तातीतगुणप्रदम् । अनन्तगुणसम्प्राप्त्यै स्वानन्तगुणसागरम् ॥१ सत्यं व्रतं समाख्याय सर्वसौख्यमहार्णवम् । अदत्तविरति वक्ष्ये दयादिवतहेतवे ॥२ कृपासत्यादिरक्षार्थ अदत्तविरतिव्रतम् । प्रणोतं जिननाथेन त्यक्तदोषं यशःप्रदम् ॥३ अवतं यो न गृह्णाति स्थूलं वस्तु धनादिकम् । मनोवाक्काययोगेन तत्तस्यास्तेयाणुव्रतम् ॥४ पतितं विस्मृतं नष्टं स्थापितं निहितं सदा । अरण्ये पथि वा गेहे परद्रव्यादिकं त्यज ॥५ यदि त्यक्तुं समर्थो न तदादाय धनादिकम् । पूजाद्यर्थं स्वपुण्याय ददस्व श्रीजिनालये ॥६ सदानं वरं लोके भवैकप्राणनाशनम् । न चादानं परस्वं हि विसंख्यभवदुःखदम् ॥७ वरं भिक्षादनेनैव स्वस्योदरप्रपूरणम् । एरद्रव्यं समादाय न च शाल्योदनैर्नृणाम् ॥८ वरं हालाहलं भुक्तं चैकजन्मभयप्रदम् । न परस्वं व्यतीतान्तभवकोटि कुदुःखदम् ॥९ अतिस्तोकं परस्वं यो लोके गृह्णाति दुष्टधीः । बधवन्धादिकं प्राप्य श्वभ्रनाथो भवेत्स वै ॥१० अरण्ये वा गृहे लोके स्वस्थं चित्तं न जायते । चौरस्य भोजने स्वस्य वाशंक्य मरणादिकम् ॥११ चौर्यासक्तं स्वजनं च मत्वा माता भयात्यजेत् । पुत्री च जनको भार्या वान्धवाश्च त्यजन्ति भो ॥१२ जो अनन्त गुणोंके सागर हैं, अनन्त गुणोंको प्राप्त हुए हैं और अनन्त गुण देनेवाले है ऐसे श्री अनन्तनाथ भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ॥१|समस्त सुखोंके महासागर ऐसे सत्यव्रतका निरूपण हो चुका, अब अहिंसावसकी सिद्धिके लिये अचौर्यव्रतको कहते हैं ।।२।। श्री जिनेन्द्रदेवने इस अचौर्यव्रतको अहिंसासत्यादिकी रक्षाके लिये हो निरूपण किया है। यह व्रत सब दोषोंसे रहित हैं और यश देनेवाला है ॥३॥ जो धन धान्य आदि स्थल पदार्थोंको मन वचन कायसे विना दिया हुआ ग्रहण नहीं करता है उसके यह अचौर्याणुव्रत कहलाता है ॥४॥ हे वत्स ! किसी वनमें, मार्गमें वा किसी घरमें पड़े हुए, भूले हुए, स्थापन किये हुए, और धरोहर रक्खे हुए धनको दूरसे ही छोड़ ॥५॥ यदि तू उसके ग्रहण करनेका त्याग नहीं कर सकता, उसे नहीं छोड़ सकता तो उस धनको लेकर अपना पुण्य बढ़ानेके लिये पूजा आदि कामोंके लिये श्री जिनालयमें दे देना चाहिये ॥६॥ इस संसारमें सर्पको पकड़ लेना अच्छा, परन्तु, दूसरेका धन लेना अच्छा नहीं, क्योंकि सर्पके पकड़नेसे एक जन्म ही नष्ट होगा किन्तु दूसरेका धन लेनेसे असंख्य भवोंतक दुःख प्राप्त होते रहते हैं ॥७॥ भीख मांगकर पेटभर लेना अच्छा परन्तु दूसरेके द्रव्यको लेकर घी बूरेसे तर शालि चावलोंका खाना अच्छा नहीं ॥८॥ हलाहल विष खा लेना, अच्छा परन्तु दूसरेका धन ले लेना अच्छा नहीं, क्योंकि विष खानेसे एक ही जन्भका भय है किन्तु दूसरेका धन लेनेसे उन्हें करोड़ों जन्मतक दुःख भोगना पड़ेगा ॥९॥ इस संसारमें जो दुष्ट दूसरेका थोड़ा धन भी लेता है वह वधबन्धनके अनेक दुःखोंको पाकर अन्तमें नरकका ही स्वामी होता है ॥१०॥ चोरी करनेवालेका हृदय न तो किसी वनमें स्वस्थ रहता है न किसी घरमें स्वस्थ रहता है न संसारमें कहीं स्वस्थ रहता है और न भोजन करने में कहीं जी लगता है क्योंकि उसे अपने मरने की, पकड़े जानेको आशंका सदा बनी रहती है ।।११।। यदि चोरी करनेवाला अपना कुटुम्बी ही हो तो उससे डरकर माता भी उसे छोड़ देती है, पुत्री भी छोड़ देती है, पिता भी छोड़ देता है, स्त्री भो छोड़ देती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy