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________________ २९४ श्रावकाचार-संग्रह स्वल्पं द्रव्यं पुनस्तेषां स ददाति कुमार्गगः । ते पूत्कतुं समर्था न लोकास्तत्ख्यातिहेतुतः ॥६४ तस्य सत्यं परिज्ञाय न शृणोति स पूत्कृतम् । राजा मत्वेति लोका हि तूष्णोभावं भजन्ति ते ॥६५ अथैकथा पुरे तत्र पाखण्डपुरात्सुधीः । श्रेष्ठी सागरदत्ताख्य आगतो धनहेतवे ॥६६ सत्यघोषसमीपे स धृत्वा रत्नानि पञ्च वै । अनाणि गतोऽतीव धनार्थ सागरान्तिकम् ॥६७ समुपायं धन लक्ष्मी यावदायाति तत्र सः । व्याघुटय पापयोगेन स्फुटितं पोतमंञ्जसा ॥६८ संप्राप्य फलकं ह्येकं तितीर्यागाधसागरम् । समीपं सत्यघोषस्य स प्राप्तः पुण्यपाकतः ॥६९ आगच्छन्तं तमालोक्य रङ्कन सदृशं परम् । समीपस्थजनानां सः प्रत्ययार्थमुवाच सः ॥७० श्रूयध्वं भो जनाः वाचं जातोऽयं विफलो नरः। द्रव्यनाशादिहागत्य रत्नानि प्रार्थयिष्यति ॥७१ तेनागत्य प्रणम्योक्तं देहि रत्नानि मे प्रभो । न्यासार्थ यानि दत्तानि स्वात्मानं प्रोद्धरामि यैः ॥७२ आकर्ष तद्वचस्तेन सत्यघोषेण भाषितम् । तद्रव्यहरणार्थ स्वपाश्र्ववतिजनान् प्रति ॥७३ भो जना वचनस्याद्य मे जातो निश्चयो न किम् । भवतां तैः पुनरुक्तं सर्वं वेत्सि त्वमेव हि ॥७४ ततः प्रोक्तं पुनस्तेन नाऽयं तु गृहिलो गृहात् । अस्मानिस्सार्यतामेव स तैनिस्सारितो हठात् ॥७५ भ्रमन् लोके स पूत्कारं कुर्वन्नित्यं प्रति स्थितः । सत्यघोषेण पञ्चैव माणिक्यानि हतानि मे ॥७६ बहुतसे लोग उसका विश्वास करने लग गये थे और उसके पास आ आकर अपना धन धरोहर रखने लग गये थे ॥६३॥ परन्तु जो द्रव्य रख जाते थे उनको वह कुर्गागगामो पुरोहित सब नहीं देता था, थोड़ी ही देता था। तथापि संसारमें उसके सत्यकी प्रसिद्धि हो रही थी इसलिये उससे कोई कुछ कह नहीं सकता था ॥६४॥ जो पुरुष उसके इस कृत्यको जान लेता था वह उसके सत्य को प्रसिद्धिको सुनकर यही सोच लेता था कि 'क्या कहूँ। यदि में कुछ कहूँगा भी तो मेरे महाराज मेरे लिये ही नाम रक्खेंगे। इसके सत्यको प्रसिद्धिके सामने मेरी कुछ चल नहीं सकेगी' यही सोच कर सब चुप हो जाते थे ॥६५॥ किसी एक समय उस नगरमें धन कमानेके लिये बुद्धिमान सागरदत्त नामका सेठ पद्मखंडपुर नामके नगरसे आया ॥६६॥ वह अपने अमूल्य पाँच रत्न सत्यघोषके समीप रख गया और स्वयं आगे धन कमानेके लिये गया ॥६७।। बाहर जाकर उसने बहुत धन कमाया और लौटकर सिंहपुर आ रहा था कि पापकर्मके उदयसे उसका जहाज नष्ट हो गया ॥६८।। परन्तु सागरदत्तका कुछ पुण्यकर्म बाकी था इसलिये वह किसी एक लकड़ीके तख्तेपर बैठकर समुद्रके किनारे पर आ गया और फिर वहाँसे चलकर सत्यघोषके पास आ पहुँचा ॥६९।। उस समय वह सागरदत्त एक रंकके समान आ रहा था। उसे दूरसे ही आते हुए देखकर सत्यघोषने अपना विश्वास जमानेके लिये समीपवर्ती लोगोंसे कहा कि हे लोगों ! देखो यह मनुष्य जो आ रहा है सो ऐसा मालूम होता है कि इसका द्रव्य सब नष्ट हो गया है इसलिये यह व्याकुल हो रहा है। अब यह यहाँ आकर मुझसे रत्न मांगेगा ॥७०-७१॥ इतने में ही सागरदत्त वहाँ आ गया और उसने प्रणामकर सत्यघोषसे कहा कि में जिन रत्नोंको धरोहर रख गया था कृपाकर अब उनको दे दीजिये ॥७२।। सागरदत्तकी यह बात सुनकर सत्यघोषने उसका समस्त द्रव्य हरण करनेके लिये समीपवर्ती लोगोंसे कहा कि देखो जो बात मैंने पहिले कही थी वह ठीक निकली। तब सागरदत्तने कहा कि आप सब जानते हैं ।।७३-७४।। तब सत्यघोषने कहा कि नहीं यह एक पागल मनुष्य है इसे यहाँसे निकाल देना चाहिये। यह सुनते ही उन मनुष्योंने उसे जबरदस्ती वहाँसे निकलवा दिया ॥७५॥ विचारा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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