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________________ २९६ श्रावकाचार-संग्रह नरकगृहकपाटं नाकमोक्षकमित्रं, जिनगणधरसेव्यं सर्वविद्याकरं भो। स्वपरहितमदोषं जीवहिंसादित्यक्तं, त्वमपि वद सुसारं सत्यवाक्यं सुखाय ॥४० यः सुधीः स्वर्गमुक्त्यर्थं व्रतं सत्यप्रतिष्ठितम् । धत्ते स पूज्यतां याति चेहैव नसुरासुरैः ॥४१ सुसत्यवतमाहात्म्यात्प्राप्ता पूजेह जन्मनि । प्रभो तस्य कथां सारां स्वदयया समादिश ॥४२ निधाय स्ववशे चित्तं शृणु मित्र ! शुभप्रदाम् । धनदेवभवां वक्ष्ये कथां मुक्त्यै तवाद्य ताम् ॥४३ जम्बूद्वीपे जनाकोणे विदेहे पूर्वनामनि । पुष्कलादिवती देशे जैनधर्माकरे वरे ॥४४ । नगयाँ पुण्डरीकिण्यां धनदेवो वणिक् भवेत् । सत्यवाद्यपरस्तत्र जिनदेवोऽतिदुष्टधीः ॥४५ अर्द्धमर्द्ध स्वलाभस्य गहीष्यावो धनम् इति । निःसाक्षिकां च व्यवस्थां तौ कृत्वा देशान्तरं गतौ ॥४६ उपाय बहुशो द्रव्यं पुण्यकर्मोदयादुभौ । व्याघुटय कुशलेनैव स्वगृहं प्रागतौ चिरात् ॥४७ जिनदेवोऽतिलोभायं न दत्ते दुष्टमानसः । स्तोकं स्वं धनदेवाय चौचित्येन ददाति वै ॥४८ ततो झकटिको जातस्तयोस्तत्र परस्परम् । मूढा द्रव्यार्थमेवाहो पापं कुर्वन्ति किं न हि ॥४९ निःसाक्षिकबलाद् ब्रूते जिनदेवोऽतिपापधीः । लोकस्वजनराजादीनामग्रेऽसत्यतत्परः ॥५० मया नैवास्थ लाभार्द्ध सद्रव्यं भणितं तदा । उक्तं तदोचितं तस्मानाधिकं प्रददाम्यहम् ॥५१ कूगतियोंके कारण हैं, गंगे, बहिरे आदि अनेक रोगोंके बीजभूत हैं, नरकमें प्रवेश करानेवाले हैं, स्वर्गमोक्षके अद्वितीय शत्रु हैं, अनेक कठिन दुःख देनेवाले हैं और पाप-संतापके बीज हैं इसलिये हे मित्र! तु मोक्ष प्राप्त करने के लिये ऐसे असत्य बचनोंका सर्वथा त्याग कर ॥३९|| इसी प्रकार सत्य वचन नरकरूपी घरको बन्द करनेके लिये किवाड़ हैं, स्वर्ग-मोक्षके मित्र हैं, श्री जिनेन्द्रदेव और गणधरदेव भी इनकी सेवा करते हैं, ये समस्त विद्याओंके देनेवाले हैं, अपने आत्माका परम कल्याण करनेवाले हैं, सर्वथा निर्दोष हैं और जीवोंकी हिंसासे सर्वथा रहित हैं इसलिये हे वत्स । आगामी सुख प्राप्त करनेके लिये तू भी ऐसे सारभूत सत्य बचनोंके भाषण करनेका नियम ले ॥४०॥ जो बुद्धिमान् स्वर्ग-मोक्ष प्राप्त करनेके लिये सदा प्रतिष्ठित सत्य बचन कहते हैं वे इस लोकमें ही राजा और देव विद्याधरोंके द्वारा पूज्य गिने जाते हैं ॥४१॥ प्रश्न-हे प्रभो ! इस सत्य व्रतके माहात्म्यसे जिसने इस संसारमें प्रतिष्ठा प्राप्त की है उसकी कथा कृपाकर मुझे सुना दीजिये ॥४२।। उत्तर-हे मित्र ! तू चित्त लगाकर सुन, मैं मोक्ष प्राप्त करने के लिये कल्याण करने वाली धनदेवकी कथा तुझे सुनाता हूँ ॥४३॥ अनेक मनुष्योंसे भरे हुए इस जम्बूद्वीपके पूर्वविदेह क्षेत्रमें जैनधर्मसे अत्यन्त शोभायमान एक पुष्कलावती देश है। उसकी पुण्डरीकिणी नगरीमें एक धनदेव नामका वैश्य रहता था। वह धनदेव सदा सत्य भाग ही करता था। उसी नगरीमें एक दुष्ट जिनदेव रहता था ।।४३-४५।। किसी एक समय धनदेव और जिनदेव दोनों हो व्यापारके लिये देशान्तर गये उन्होंने विना किसी अन्यकी साक्षीके परस्पर में यह तयकर लिया था कि हमारे व्यापारमें जो कुछ लाभ होगा उसे हम दोनों आधा आधा बाँट लेंगे ॥४६॥ वहाँ जाकर उन्होंने पुण्यकर्मके उदयसे बहुतसा द्रव्य कमाया और फिर वे दोनों शीघ्र ही लौटकर कुशलपूर्वक घर आ गये ||४|| जिनदेव दुष्ट था इसलिये घर आनेपर उसने धनदेवको आधा द्रव्य नहीं दिया किन्तु उसे थोड़ासा द्रव्य देना चाहा । इसलिये उन दोनोंमें परस्पर झगड़ा हो गया । सो ठीक ही है क्योंकि मूर्ख लोग धनके लिये क्या क्या पाप नहीं करते हैं ? अर्थात् सब कुछ करते हैं ॥४८-४९।। कोई साक्षी तो था ही नहीं, इसलिये झूठ बोलनेवाले पापी जिनदेवने सब लोगोंके सामने, कुटुम्बियों के सामने और राजादिके सामने यही कहा कि मैंने इस व्यापारके लाभमेंसे इसे कुछ भी द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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