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________________ प्रश्नोत्तरबाक्काचार २९५ नृणां मूकवधिराहमुपरोगादिसायम् । दुःस्वरत्वं च मूर्खत्वं जायतेऽनृतभाषणात् ॥२६ ज्ञानं विद्यां विवेकं च सुस्वरत्वं वचः पटुम् । वादित्वं सुकवित्वं च सत्याज्जीवा भजन्त्यहो ॥२७ अतिचारविनिर्मुक्तं सत्याख्यं यो व्रतं चरेत् । नाकराज्यादिकं प्राप्य मुक्तिनाथो भवेत्स ना ॥२८ भो भगवन्नतीचारान् दयां कृत्वा प्ररूपय । व्रतशुद्धचर्यमौव सत्यव्रतमलप्रदान् ॥२९ कृत्वा स्वहृदयं वत्स सङ्कल्पादिविजितम् । शृणु तेऽहं प्रवक्ष्यामि व्यतीचारान् व्रतस्य भो ॥३० आद्यो मिथ्योपदेशश्च रहोभ्याख्यानसंज्ञकः । कूटलेखक्रिया न्यासापहारश्च भवेत्ततः ॥३१ साकारमन्त्रभेदश्च व्यतीचाराः भवन्त्यमी । पञ्चैवाप्यनृतत्यागव्रतस्य दोषदायकाः ॥३२ कार्यमुद्दिश्य योऽसत्य उपदेशो हि दोयते । परस्य द्रव्यलाभार्थं सः स्यादादौ व्यतिक्रमः ॥३३ अनुष्ठितं च प्रच्छन्नं स्त्री-भर्तृभ्यां प्रकाश्यते । प्राप्य लोकजनैर्यत्तद् रहोभ्याख्यानमुच्यते ॥३४ परस्य वञ्चनार्थ यः कटलेखादिकं लिखेत् । कूटलेखक्रिया नाम्ना भवेत्तस्य व्यतिक्रमः ॥३५ न्यासात्स्वामिनो योऽपि धनं स्वल्पं ददाति भो । अतिचारो भवेत्तस्य स्तोकमाहृत्य तत्स्वयम् ॥३६ गृहीत्वा परमयं यः प्रपञ्चेनापि चेष्टया । प्रकाशयति लोकाग्रे व्यतिचारं लभेत् सः ॥३७ एतद्दोषपरित्यक्तं सूनृतं यो वदेद्वचः । स एनः संवरं प्राप्य नाकं यति क्रमात् शिवम् ॥३८ वधिरकुगतिहेतुं मूकरोगादिबीजं, नरकगृहप्रवेशं स्वर्गमोक्षकशत्रम् । इहपरभवदुःखं पापसन्तापबीजं, त्यज सकलमसत्यं त्वं सदा मुक्तिहेतोः ॥३९ बहिरे होते हैं, उनके मुंहमें अनेक रोग हो जाते हैं, उनका स्वर बुरा होता है और वे मूर्ख होते हैं ।।२६।। इसी प्रकार सत्य वचनके फलसे ज्ञान बढ़ता है, विद्या बढ़ती है, विवेक बढ़ता है, अच्छा मीठा स्वर होता है, वचनको चतुरता आती है, सभाको जोतनेवाला वादा होता है और अच्छा कवि होता है ॥२७॥ जो मनुष्य इस सत्यव्रतको अतीचार-रहित पालन करता है वह स्वर्गादिकके तथा राज्यादिकके सुख भोगकर अन्तमें मुक्तिलक्ष्मीका स्वामी होता है ॥२८॥ प्रश्न-हे भगवन् ! इस व्रतको शुद्ध पालन करनेके लिये इस सत्य व्रतमें दोष उत्पन्न करनेवाले अतिचारोंको कृपाकर कहिये ॥२९॥ उत्तर-हे वत्स ! तू हृदयके सब संकल्प-विकल्पों को छोड़कर सुन ! तेरे लिये मैं उन अतिचारोंको कहता हूँ॥३०॥ मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमन्त्रभेद ये सत्य व्रतमें दोष लगनेवाले पाँच अतीचार गिने जाते हैं ॥३१-३२।। जो अपने किसी कार्यको सिद्धिके लिये अथवा द्रव्य कमानेके लिये झूठा उपदेश दिया जाता है वह मिथ्योपदेश नामका पहिला अतीचार गिना जाता है ॥३३॥ जो किसी द्रव्यके लोभसे अथवा अन्य किसी प्रयोजनसे स्त्री पुरुषोंके द्वारा अथवा अन्य किसीके द्वारा किये हुए छिपे कार्यको प्रगट करता है उसके वह रहोभ्याख्यान (एकान्तमें किये हुए कार्यको प्रगट करना) नामका अतीचार कहलाता है ॥३४।। जो किसो दूसरेको ठगनेके लिये झूठे लेख लिखता है उसके कूटलेखक्रिया नामका तीसरा अतीचार लगता है ॥३५॥ किसीके धरोहर रक्खे हुए धन मेंसे जो थोड़ा देता है उसमेंसे कूछ रख लेता है उसके न्यासापहार नामका चौथा अतीचार होता है ॥३६॥ जो किसी छल कपटसे अथवा किसीकी चेष्टा देखकर दूसरेके हृदयकी बातको जानकर उसे अन्य लोगोंके सामने प्रकाशित करता है वह साकारमन्त्रभेद नामका पांचवा अतीचार कहलाता है ॥३७।। जो पुरुष इन अतीचारोंको छोड़कर सत्य भाषण करता है वह स्वर्गादिकके सुख भोगकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है ॥३८॥ संसारमें असत्य वचन अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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