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________________ २९४ श्रावकाचार-संग्रह सत्यसीमादियुक्तस्य वाऽसत्यरहितस्य वै । अग्निसादयो नैव पीडां कुर्वन्ति केचन ॥१३ सत्येन वचसा प्राणी पूजनीयो भवेद् ध्रुवम् । नरैर्देवैरिहामुत्र स्वर्ग-मुक्त्यादिकं श्रयेत् ॥१४ कर्कशं निष्ठुरं निन्धं पापाढचं मर्मसूचकम् । दूतकर्मकरं त्यक्तधर्म चापरकोपदम् ॥१५ कटुकं परनिन्दादियुक्तं गर्वादिकारणम् । सरागं शोकसम्पन्नं सर्वजीवभयप्रदम् ॥१६ हास्यादिप्रेरकं कामकारणं मुनिदूषितम् । असत्यं दुःखदं त्यक्तविचारं शास्त्रदूरगम् ॥१७ आत्मगुणप्रशंसादिकरं मूढप्रतारकम् । धर्मदेशविरुद्धं च कृत्स्नक्लेशादिसागरम् ॥१८ । विकथादिकरं सर्वनीचलोकोदितं वचः । त्यज त्वं सर्वथा मित्र प्राणः कण्ठगतैरपि ॥१९ असत्यवचनाल्लीको वराको व्याकुलीकृतः । रचयित्वा कुशास्त्रं भो खलैधर्मपराङ्मुखैः ॥२० मृषावादेन लोकोऽयं धूर्तेः स्वपरवञ्चकैः । धर्ममार्गात्सुद्रव्यार्थमुत्पर्य पतितो हठात् ॥२१ जैनशासनमध्ये च बाह्य श्रीजिनशासनात् । असत्यबलतो नूनं जाताः सर्वे मतान्तराः ॥२२ असद्वदनवल्लोके जिह्वाख्या सर्पिणी स्थिता । असत्यकुविषास्येन खादत्येव बहून् जनान् ॥२३ अमेध्य भक्षणं श्रेष्ठं न च वक्तुं स्वजिह्वया । हिंसाकरं मृषावादं दुःखपापाकरं नणाम् ॥२४ असत्यसदृशं पापं न भूतं न भविष्यति । नास्ति लोकत्रये तस्मात्त्यज त्वं हि विषादिवत् ॥२५ ऐसे सत्यरूपी अमृत वचन उपस्थित हैं फिर भला ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो निद्य, कठोर और झूठ वचनोंको कहे ॥१२॥ जो पुरुष सदा वचनोंकी सीमामें ही रहता है कभी असत्य नहीं बोलता, उसे अग्नि सर्प आदि कोई भी पीड़ा नहीं दे सकते ॥१३॥ सत्य वचनोंके ही कारण यह प्राणी इस संसारमें देव और मनुष्योंके द्वारा पूज्य होता है तथा परलोकमें स्वर्ग मोक्षादिके सुख प्राप्त करता है ॥१४।। जो वाक्य कर्कश हों, कठोर हों, निंद्य हों, पापमय उपदेशसे परिपूर्ण हों, किसी मर्मको कहनेवाले हों, दूतपनेके कामको करनेवाले हों, धर्मसे रहित हों, दूसरोंको क्रोध उत्पन्न करनेवाले हों, कड़वे हों, दूसरोंकी निन्दा करनेवाले हों, अभिमान प्रगट करनेवाले हों, राग उत्पन्न करनेवाले हों, शोक करनेवाले हों, समस्त जीवोंको भय उत्पन्न करनेवाले हों, हँसो करनेवाले हों, कामोद्रेक उत्पन्न करनेवाले हों, मुनियोंमें दोष लगानेवाले हों, असत्य हों, दुख देनेवाले हों, विचार-रहित हों, शास्त्रोंस विरुद्ध हों, अपने गुणोंको प्रशंसा करनेवाले हों, मूर्ख लोगोंको ठगनेवाले हों, धर्मविरुद्ध हों, देश-विरुद्ध हों, कृष्णलेश्या आदिमें डुबानेवाले हों, विकथा आदिको सूचित करनेवाले हों, और नीच लोगोंके द्वारा कहने योग्य हों, हे मित्र ! ऐसे वचन कंठगत प्राण होनेपर भी नहीं कहने चाहिये । तू ऐसे वचनोंका सर्वथा त्याग कर ॥१५-१९।। असत्य वचन कह कह कर ही दुष्ट पुरुषोंने अनेक कुशास्त्र रचकर लोगोंको व्याकुल और धर्मसे पराङ्मुख कर दिया है ।।२०।। झूठ बोल बोल कर ही अपने आत्माको तथा अन्य लोगोंको ठगनेवाले और धर्म मार्गसे ही द्रव्य कमानेवाले धूर्तीने हठपूर्वक अनेक कुशास्त्रोंको रचा है ॥२१॥ असत्य वचनोंके प्रभावसे ही जिनशासनके भीतर और जिनशासनके बाहर अनेक मत-मतान्तर उत्पन्न हो गये हैं ॥२२॥ नीच मुखरूपी बामीमें जिह्वारूपी सर्पिणी रहती है वह असत्यरूपी हलाहल विषसे भरे हुए मुखसे अनेक लोगोंको खा डालती है ॥२३॥ विष्टा भक्षण कर लेना अच्छा, परन्तु अपनी जिह्वासे हिंसा करनेवाले, पाप और दुःख उत्पन्न करनेवाले झूठ वचन कहना कभी अच्छा नहीं ॥२४॥ इन तीनों लोकोंमें असत्य वचनोंके समान अन्य कोई पाप न आज तक हुआ है और न हो सकता है इसलिये हे मित्र ! विषेले सर्पके समान शीघ्र ही तू इसका त्याग कर ॥२५।। इस असत्य वचनके फलसे ही लोग गूंगे, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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