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________________ तेरहवाँ परिच्छेद विमलं विमलं वन्दे विमलेश्वरवन्दितम् । नष्टक मंमलं देवं पापदुलहानये ॥१ अहिंसाव्रतमाख्याय सत्यसंज्ञं व्रतं परम् । सर्वलोकहितार्थं च वक्ष्ये तद्वतसिद्धये ॥२ अहिंसाव्रतरक्षार्थं द्वितीयं सद्व्रतं जिनैः । कीर्तितं गृहिणां सारं भाषासमितिसंयुतम् ॥३ ये वदन्ति न च स्थूलमलोकं वादयन्ति न । परैर्न चानुमन्यन्ते तेषां सत्यव्रतं भवेत् ॥४ हितं ब्रूयान्मितं ब्रूयाद् ब्रूयात्सन्मधुरं वचः । बुधो निन्दादिसंत्यक्तं सर्वसत्त्वसुखप्रदम् ॥५ हितं स्वस्य भवेद् यत्तद् वचनं धर्मकारणम् । यशः प्रदं च पापादित्यक्तं त्वं वद सर्वदा ||६ परस्यापि हितं सारं रागद्वेषादिर्वाजतम् । वक्तव्यं च वचो नित्यं धर्मसंवेगदं बुधैः ॥७ आगमोक्तमनिन्द्यं च विकथादिपराङ्मुखम् । धर्मोपदेशनायुक्तं वदन्ति सद्वचो बुधाः ॥८ हितमुद्दिश्य यकचिदुक्तं भो कठिनं वचः । असत्यं वा परस्यापि तत्सत्यं गदितं जिनैः ॥९ परपीडाकरं यत्तद्वचः सत्कर्णदुःखदम् । वधबन्धादिकं सत्यमसत्यं गदितं जिनैः ॥१० सारसत्यामृतादङ्गी यशः पूजादिकं भजेत् । सद्धर्मादिमसत्येन वधबन्धादिकं च भो ॥११ सति सत्यामृते पूज्ये हिते सर्वसुखाकरे । अलोकं कटुकं निन्द्यं वचनं को वदेत् सुधीः ॥ १२ जिनकी आत्मा अत्यन्त निर्मल हैं, जिन्होंने समस्त कर्मोंको नष्ट कर दिया है, और गणधरादि निर्मल पुरुष भी जिन्हें वन्दना करते हैं ऐसे श्री विमलनाथ भगवान्‌को में अपने पापकर्मोंको नाश करनेके लिये नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥ ऊपर के परिच्छेद में अहिंसाव्रतका निरूपण किया । अब आगे समस्त जीवोंका हित करनेके लिये और श्रेष्ठ व्रतोंकी सिद्धिके लिये उत्तम सत्य व्रतको कहता हूँ ||२|| सज्जन पुरुषोंने अहिंसा व्रतकी रक्षा करनेके लिये ही सत्यव्रतका निरूपण किया है । यह व्रत गृहस्थोंके लिये सारभूत व्रत है और भाषासमितिसे परिपूर्ण है ||३|| जो न तो स्थूल झूठ स्वयं बोलते हैं न दूसरोंसे बुलवाते हैं और न किसीके द्वारा बोले हुए झूठकी अनुमोदना करते हैं उनके यह सत्यव्रत होता है ||४|| विद्वान् गृहस्थोंको सबका हित करनेवाला, थोड़ा और मधुर वचन कहना चाहिये, किसीकी निन्दा नहीं करनी चाहिये और सब जीवोंको सुख देनेवाले वचन कहने चाहिये ||५|| हे भव्य ! तू सदा ऐसे वचन कह जिनसे अपने आत्माका कल्याण हो, जो धर्मके कारण हों, यश देनेवाले हों, और पापोंसे सर्वथा रहित हों || ६ || विद्वान् लोगोंको अन्य जीवों का हित करनेवाले, राग-द्वेषसे रहित, सारभूत और धर्म वा संवेगको बढ़ानेवाले वचन ही सदा कहने चाहिये |७|| विद्वान् लोग सदा आगमके अनुसार, अनिन्द्य, विकथादिसे रहित, धर्मोपदेशसे भरे हुए ही वचन कहते हैं ||८|| जो दूसरोंके हितके लिये कुछ कठिन वाक्य भी कहे जाते हैं अथवा दूसरोंकी रक्षा वा हितके लिये असत्य भी कहा जाता है वह सब भगवान् जिनेन्द्रदेवने सत्य ही बतलाया है ||९|| जो दूसरोंको दुःख उत्पन्न करनेवाले हों, कानोंको दुःख देनेवाले हों, और जीवोंका बघ वा वन्घन करनेवाले हों ऐसे सत्य बचनोंको भी विद्वान् लोग असत्य ही कहते हैं ॥ १० ॥ सत्यरूपी सारभूत अमृत वचनोंसे जीवोंको यश प्राप्त होता है, प्रतिष्ठा प्राप्त होती है और धर्मकी प्राप्ति होती है और असत्य वचनोंसे वध बन्धन आदि अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त होते हैं ||११|| इस संसारमें जब सब जीवोंको सुख देनेवाले, सबका हिस करनेवाले, और पूज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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