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________________ २९२ श्रावकाचार-संग्रह इति घोरतरं दुःखं इहामुत्रादि निन्दितम् । हिंसादोषेण संप्राप्ता धनश्रीर्दुष्टचेष्टया ॥२०७ अन्येऽपि बहवः श्वभ्रं गता ये नारदादयः । हिंसानुरागतस्तेषां कयां को गदितुं क्षमः ।२०८ अशुभसकलपूर्णां दुर्गति दुःखदीप्ता, दुरितधनप्रसङ्गां जीवहिंसादियोगात् । अतिकुचरणदोषात् सा धनश्रीगता त्वं, त्यज सकलवघं भो दुःखभीतो यदि त्वम् ॥२०९ इति श्रीभट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे अष्टमूलगुण-सप्तव्यसन-प्रथमहिंसा विरतिव्रतसमागत-मातङ्गधनश्रीकथाप्ररूपको नाम द्वादशमः परिच्छेदः ।।१२।। घोर सब दुःखोंका अनुभव कर वह दुष्ट धनश्री अनेक दुःखोंसे भरी हुई दुर्गतिमें जा उत्पन्न हुई ॥२०५-२०६।। इस प्रकार धनश्रीने अपनी. दुष्ट चेष्टासे और हिंसा नामके महा पापसे इस लोकमें भी घोर दुःख पाया और परलोकमें भी उसे अत्यन्त निंद्य गतिमें जन्म लेना पड़ा ॥२०७॥ नारद आदि और भी ऐसे बहुतसे मनुष्य हुए हैं जो हिंसामें प्रेम रखनेके कारण नरकमें गये हैं उन सबकी कथा कहना भी सामर्थ्यसे बाहर है ॥२०८॥ देखो धनश्रीने निडर होकर जीवहिंसाकी थी और दुराचरण किया था इसलिये उस पापके फलसे उसे अनेक दुःखोंसे भरी हुई और समस्त अनिष्ट संयोगसे परिपूर्ण ऐसी दुर्गतियोंमें जन्म लेना पड़ा था। इसलिये हे भव्य ! यदि तू दुःखोंसे डरता है तो तू भी सब तरहकी हिंसाका त्याग कर ॥२०९॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्तिविरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें आठ मूलगुण, सात व्यसन और अहिंसाव्रतको निरूपण करनेवाला तथा यमपाल चांडाल और धनश्रीकी कथाको कहनेवाला यह बारहवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥२२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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