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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २९१ येनावयोरेकस्थानं भवत्येव निरङ्कशम् । ब्रुवाणं मातरं श्रुत्वा जगी तत्सुन्दरी स्वयम् ॥१९२ हे बान्धवाद्य यामेऽपि पश्चि मे निशि गोधनम् । गृहीत्वा प्रेषयित्वा च माता त्वां मारयिष्यति ॥१९३ अटव्यां कुण्डलस्यैव हस्तेन कूटयोगतः । अतस्तत्राधुना त्वं हि सावधानो भव स्वयम् ॥१९४ यामे धनश्रिया रात्रौ पश्चिमे भणितोऽङ्गजः । हे पुत्र ! कुण्डस्याङ्ग वर्ततेऽति विरूपकम् ॥१९५ अतो व्रज गृहीत्वा त्वं गोधनं प्रसरे स्वयम् । तस्या वचनतस्तेन तत्र नीतं तदेव हि ॥१९६ काष्ठं पिधाय वस्त्रेण भूत्वा तत्र तिरोहितः । स्थितोऽन्वेषयितुं मातुश्चेष्टितं सोऽतिमूढतः ॥१९७ आगत्य कुण्डलेनैव कृतो घातोऽसिना स्वयम् । मत्वेति गुणपालं तत् काष्ठे सद्वस्त्रकम्पिते ॥१९८ ततोऽघाद्गुणपालेन मारितः सोऽतिदुष्टधीः । खड़गेनैव पुनः गेहमागतः स्वयमेव सः ॥१९९ ततो धनश्रिया पृष्टो गुणपालः क्व कुण्डलः । तेनोक्तं तस्य वार्ता मे खड्गो जानाति तत्त्वतः ॥२०० ततो रक्तसमालिप्तं खड्गमालोक्य कोपतः । तया तेनैव खड्गेन हतः पुत्रो दयां विना ॥२०१ दृष्ट्वा तां मारयन्तों स्वस्याम्बां बान्धवस्नेहतः । हता सा मुशलेनैव सुन्दर्याः पापयोगतः ॥२०२ पश्चात्कोलाहले जाते कोटवालैरघोदयात् । राज्ञोऽग्ने सा समानीता धनश्री: बान्धवैः समम् ॥२०३ वृत्तान्तं सर्वमाकर्ण्य राज्ञा पुत्रीमुखात्स्वयम् । दत्तो दण्डो महाघोरः कोपादस्याः महाशुभः ॥२०४ तत्कर्णनासिकाछेदगर्दभारोहणादिकम् । तत्कालाजितपापस्य प्रोदयेन कुदुःखदः ॥२०५ अनुभूय महाघोरं तत्सर्व दुःखमञ्जसा । दुर्गति दुःखसङ्कीर्णा दुष्टध्यानेन सा गता ॥२०६ जाकर गुणपालको मार आना । गुणपालके मारनेसे फिर हमारे तुम्हारे एक स्थानपर रहनेमें कोई बाधा नहीं होगी।' धनश्रीकी यह बात सुन्दरीने भी न ली और उसने उसी समय अपने भाई गुणपालसे कहा कि भाई माता आज तुझे गाय चरानेको भेजेगी और कुण्डलके हाथसे तुझे मरवावेगी। वह ये सब बातें रातमें कुण्डलसे कह रही थी इसलिये तू खूब सावधान रहना ॥१९०-१९४।। सवेरा होते ही धनश्रीने गुणपालसे कहा कि हे पुत्र आज कुण्डलका शरीर ठीक नहीं है इसलिये आज जंगलमें जाकर गायोंको तू हो चरा ला। माताकी यह बात सुनकर गुणपाल सब गायोंको लेकर जंगलमें चला गया ।।१९५-१९६।। वहाँ जाकर उसने अपने सब कपड़े एक लकुडीको पहिनाये । उसे सोती हुई बनाकर ऊपरसे वस्त्र उढाकर आप छिप गया और दूरसे ही माताको चेष्टा देखने लगा ।।१९७।। कुण्डल आया, उसने कपड़ोंसे गुणपाल समझकर तलवारका वार किया । गुणपाल यह सब कृत्य देख ही रहा था इसलिये वह झट निकल आया और तलवारसे कुण्डलको मारकर स्वयं घर आ गया ॥१९८-१९९।। गुणपालके घर आते ही धनश्रीने उससे पूछा कि कुण्डल कहाँ है ? इसके उत्तरमें गुणपालने कहा कि उसकी बात मेरी तलवार जानती है ॥२००।। धनश्रीने देखा कि गुणपालकी तलवार रक्तसे लाल हो रही है तब उसे बड़ा क्रोध आया और उसने उसी तलवारसे विना किसी दयाके गुणपालको मार डाला ॥२०१।। गुणपालको मारते हुए देखकर सुन्दरीको भी भाईका स्नेह उमड़ आया और धनश्रीके पाप कर्मके उदयसे सुन्दरीने भी मसलोंसे धनश्रीको खूब मारा ॥२०२।। पीछे बहुत कोलाहल हो गया, कोतवाल भी आ गया और वह उसे बाँधकर सब कुटुम्बियोंके साथ राजाके सामने ले आया ॥२०३॥ राजाने सुन्दरीके मुखसे सब बातें सुनी और क्रोधित हो उसने बहुत ही बुरा और बहुत ही कठोर दण्ड दिया ।।२०४।। उसके नाक कान कटाकर काला मुहकर गधेपर चढ़ाकर उसे शहरमें घुमाया। इस प्रकार उसी समय उपार्जन किये हुए पापकर्मके उदयसे राजाके द्वारा दिये हुए महा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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