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________________ २९० श्रावकाचार - संग्रह तं प्रातिशयमाकयं स्वं विनिन्द्य मुहुर्मुहुः । भयकम्पितसर्वाङ्गः स्वयं तत्रागतो नृपः ॥ १७९ प्रशंस्य पूजयित्वा च विशिष्टस्तेन सत्कृतः । संस्पृश्य स्नापयित्वा च निजछत्रतले स्वयम् ॥१८० एवं चादिव्रतेनैव मातङ्गोऽपि दिवं गतः । अमुत्रात्र परिप्राप्य पूजां राज्ञा सुरेण सः ॥ १८१ यो भव्यः सत्कुलोत्पन्नो धत्ते जीवदयाव्रतम् । मनोवाक्काययोगेन फलं तस्य न वेदम्यहम् ॥१८२ नृपजनसुरपूज्यो धीरवीरंकचित्तो, घृतप्रथमव्रतो यः कीर्तिलाभादिसारम् । अमलमिह समस्तं प्राप्य स्वगं गतो ना स जयतु यमपालो नाम मातङ्गसिंहः ॥ १८३ अहिंसाव्रतसारस्य प्रतिपाद्य फलं तव । वक्ष्येऽहं शृणु भो वत्स दोषं जीवदयां विना ॥ १८४ कृपां विना धनश्रीर्या प्राप्तादुःखपरम्पराम् । कथां तस्या हि वक्ष्यामि भव्यलोकभयप्रदाम् ॥ १८५ लाटदेशेऽतिविख्याते भृगुकक्षाख्यपत्तने । लोकपालनृपः श्रीमान् बभूव पुण्ययोगतः ॥ १८६ वणिक् स्याद्धनपालोऽत्र धनश्रीस्तस्य वल्लभाः । तयोश्च सुन्दरी पुत्री गुणपालाभिधः सुतः ॥ १८७ पूर्व घनश्रिया योऽपि पुत्रबुद्धयाऽतिपोषितः । मोहेन पुत्रकालेऽपि कुण्डलाख्योऽति बालकः ॥१८८ धनपाले मृते पश्चात्तेनैव सह रूपिणा । करोति कामक्रीडां सा दुष्टाचारैकमानसा ॥ १८९ गुणपालेन तज्ज्ञातं अम्बायाश्चेष्टितं ध्रुवम् । प्रोक्तं धनश्रिया जारं प्रतिशङ्कितया स्वयम् ॥१९० रे कुण्डल ! प्रभातेऽहं चारयितुं स्वगोधनम् । अटव्यां प्रेषयामि त्वं गुणपालं हि मारय ॥ १९१ उत्तम है और तू ही धन्य है' इस प्रकार उस देवीने उस चांडालके व्रतकी बड़ी प्रभावना की ।। १७७-१७८ ।। उस अतिशयको सुनकर राजा भी दौड़ता आया, भयसे उसका सब शरीर कंपने लगा और उसने बार बार अपनी निन्दा की || १७९ ॥ राजाने आते ही उसकी प्रशंसा की, पूजा की, वस्त्राभूषणोंसे उसका सत्कार किया और अपने छत्रके नीचे बिठाकर स्वयं उसे स्नान कराया ॥ १८० ॥ इस प्रकार वह चांडाल केवल अहिंसा व्रतके माहात्म्यसे राजाके द्वारा पूज्य हुआ, और देवोंके द्वारा पूज्य हुआ तथा मरकर स्वर्ग में देव हुआ || ८१|| इस अहिंसा व्रतके प्रभाव से जब एक चांडालने इतना फल पाया तब फिर श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न हुआ भव्य पुरुष, मन वचन कायसे जीवोंकी दया पालन करता है, अहिंसाव्रतको धारण करता है उसके फलको हम जान भी नहीं सकते ।।१८२।। देखो धीर वीर सिंहके समान निर्भय यमपाल चांडालने एकाग्रचित्त से प्रथम अहिंसा व्रतका पालन किया था इसलिये वह राजा और देवोंके द्वारा पूज्य हुआ, संसारमें उसकी निर्मल कीर्ति हुई और सब तरहकी महिमाको पाकर अन्तमें स्वर्गका देव हुआ । इसलिये यह अहिंसा सबको पालन करना चाहिये ||१८३ || हे वत्स ! इस प्रकार तुझे सर्वोत्तम अहिंसाव्रतका फल बतलाया । अब आगे विना दयाके जो दोष होते हैं उन्हें कहता हूँ तू सुन || १८४ ॥ विना दयाके धनश्रीने बहुत दिनोंतक अपार दुःख पाया था इसलिये भव्य जीवोंको उस निर्दयताके पापसे भय उत्पन्न करनेवाली उसको कथा कहता हूँ || १८५ ॥ लाट देशके भृगुकक्ष नामके नगरमें पुण्य कर्मके उदयसे श्रीमान् राजा लोकपाल राज्य करता था || १८६ | | उसी नगरमें एक धनपाल नामका वैश्य रहता था । उसकी स्त्रीका नाम धनश्री था । उन दोनोंके सुन्दरी नामकी पुत्री थी और गुणपाल नामका एक पुत्र था ॥ १८७ || पहिले किसी समय धनश्रीने एक कुंडल नामके बालकको पुत्र समझकर पाला था और उसपर उसका बहुत मोह था || १८८ || परन्तु धनपालके मरनेपर वह दुराचारिणी धनश्री उसी कुंडलके साथ कामक्रीड़ा करने लगी || १८९ || धनश्रीके पुत्र गुणपालने अपनी माताका यह सब दुराचार जान लिया इसलिये धनश्रीको उससे कुछ डर लगा और उसने कुण्डल से कहा कि 'हे कुण्डल ! में सबेरे ही गुणपालको गायें चरानेके लिये जंगलमें भेजूंगी सो तू वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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