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________________ २८९ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार राजा ब्रूते हि मातङ्गं त्वं पुत्रं हंसि किन्न वै। तेनोक्तं शृणु भो देव ! काञ्चिन्मम कथां वराम् ॥१६६ एकदा सर्पदंष्टोऽहं मूच्छितो बान्धवादिभिः । स्मशाने परिनिक्षिप्तो नीत्वा च मृतकं यथा ॥१६७ सत्सर्वौषद्धिमुनेः शरीरस्पशिवायुना । त्यक्तदेहस्य तत्रैव जीवितोऽहं शुभोदयात् ॥१६८ पार्वे तस्य मुनीन्द्रस्य गृहीतं हि मया व्रतम् । चतुर्दशीदिने सारे सर्वजीवाभयप्रदम् ॥१६९ अतो देव ! तमद्याहं मारयामि न निश्चितम् । स्वर्गमुक्तिसुखायैव पूर्वपापादिशान्तये ॥१७० वतमस्पश्यचाण्डालस्यापि सारं कथं भवेत् । इति संचित्य रुष्टेन राज्ञा प्रोक्तं विरूपकम् ॥१७१ एतयोश्चण्डकर्म त्वं बन्धयित्वा विबन्धनैः । शिशुमारहृदे नीत्वा निक्षेपं कुरु दुष्टयोः ॥१७२ वरं प्राणपरित्यागो न च भक्तुं क्वचिद्वतम् । व्रतभङ्गोऽतिदुःखाय प्राणाः सन्ति भवे भवे ॥१७३ जीवितव्यं भवेद् यत्र व्रतं त्यक्त्वातिदुर्लभम् । तेन मे पूर्यतामद्य प्राणान्ते न जहामि तत् ॥१७४ इति निश्चित्य चित्ते स धीरः सवततत्परः । त्यक्तप्राणःपरित्यक्तभयः सिंह इव स्थितः ॥१७५ तेन निक्षिपितौ शीघ्रं दृढबन्धनबन्धितौ । मातङ्गवतमाहात्म्यदागता जलदेवता ॥१७६ तया च जलमध्येऽपि कृतं सन्मणिमण्डपम् । सिंहासनं महाप्रातिहार्य सदुन्दुभिस्वनम् ॥१७७ जयात्र भो सन्मातङ्ग साधु साधु त्वमेव हि । धन्योऽसीति तया तस्य कृता व्रतप्रभावना ॥१७८ की कि हे महाराज ! यह चांडाल कुमारको आपका पुत्र समझकर नहीं मारता है ।।१६५।। राजा ने उस चांडालसे पूछा कि तू इस कुमारको क्यों नहीं मारता है ? तब चांडालने कहा कि हे प्रभो ! मेरी एक छोटी-सी कथा सुन लीजिये ॥१६६|| किसी एक दिन मुझे सर्पने काट लिया था और मैं उसके विषसे मूछित हो गया था, तब मेरे भाई बन्धु आदि कुटुम्बियोंने मुझे मरा समझकर स्मशानमें लाकर पटक दिया था ॥१६७। वहाँपर एक सौषधि ऋद्धिको धारण करनेवाले मुनिराज विराजमान थे, उनके शरीरको स्पर्श करनेवाली वायु मेरे शरीरपर लगी और शुभ कर्म के उदयसे मैं जीवित हो गया ॥१६८|| जीवित होते ही मैंने परमोपकार करनेवाले उन मुनिगजसे व्रत लिया था कि मैं चतुर्दशीके दिन किसीको हिंसा नहीं करूंगा। इसीलिये हे देव ! स्वर्ग-मोक्षके सुख प्राप्त करनेके लिये और पर्वके दिनोंमें समस्त पापोंको शान्त करनेके लिये आज मैं उसे कभी नहीं मारूंगा' ॥१६९-७०॥ राजाने सोचा कि 'यह अस्पृश्य चांडाल है इसके ऐसा उत्तम व्रत कहाँसे हो सकता है' यही सोचकर राजाने कड़े शब्दोंमें कहा कि 'हे कोतवाल ! ये दोनों ही दुष्ट हैं इसलिये इन दोनोंको रस्सी आदिसे खूब अच्छी तरह बाँधकर शिशुमार नामके भयंकर सरोवरमें पटक दो! ॥१७१-१७२॥ राजाको यह आज्ञा सुनकर वह चांडाल विचार करने लगा कि 'प्राणोंका त्याग कर देना अच्छा, परन्तु व्रतका भंग करना अच्छा नहीं, क्योंकि व्रत भंग करने से जन्म जन्ममें दुःख प्राप्त होते हैं और प्राण तो प्रत्येक भवमें प्राप्त होते रहते हैं। व्रतकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसे प्राप्त हुए व्रतको छोड़कर जीवित रहनेसे क्या लाभ है ? इसलिये प्राण भले ही चले जाओ, परन्तु मैं अपने व्रतको कभी नहीं छोड़ सकता।' हृदयमें ऐसा निश्चयकर वह धीर वीर चांडाल अपने व्रत पालने में तत्पर बना रहा और अपने प्राणोंका भय छोड़कर सिंहके समान निर्भय बना रहा ।।७३-७६।। तदनन्तर उस कोतवालने उन दोनोंको अच्छी तरह बांधकर उस सरोवरमें पटक दिया। चांडाल अपने व्रतमें अचल रहा था इसलिये उसके व्रतके माहात्म्यसे उसी समय जलकी देवी आई । आते ही उसने उसके मध्यमें ही एक मणियोंका मंडप बनाया। उसमें एक सिंहासनपर चांडालको विराजमान किया, दुंदुभी बाजे बजाये, प्रातिहार्य बनाये और पुकारकर कहा कि 'हे चांडाल ! तेरी जय हो, तू संसारमें बहुत अच्छा है, बहुत Jain Education 19 national For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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