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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचारं भावेन कथितो धर्मो व्रतं च गौतमादिभिः । तस्माद्भावो विधातव्यो बुधैर्जीवादिरक्षणे ॥११७ सूनादिके सदा यत्नं कुरुध्वं श्रावकोत्तमाः । प्रमादं हि परित्यज्य जीवराशिक्षयंकरे ॥११८ हुताशने गृहस्थै षट्जीवादिविनाशके । महायत्नोऽपि कर्तव्यो व्रतरक्षादिहेतवे ॥ ११९ नीरं चागलितं येन पीतमञ्जलिमात्रकम् । घटेनैव कृतं स्नानं तस्य पापं न वेदम्यहम् ॥१२० अतिस्तोकेन नीरेण निरीक्ष्य मूत्रसादिकम् । स्नानादिकं प्रकर्तव्यं बुधैः पूजादिहेतवे ॥१२१ बहुनोक्तेन किं साध्यं कायवाङ्मनसादिभिः । जीवरक्षां कुरुध्वं भो बुधाः श्रीव्रतसिद्धये ॥१२२ सबलो दुर्बलं चात्र हन्ति यो दुष्टमानसः । सहेत परलोके स तस्माद्धि सामनेकधा ॥१२३ तृणेन स्पर्शमात्रेण किंचिदुःखमवैति यः । स कथं परजीवानामङ्गे शास्त्रं निपातयेत् ॥ १२४ अन्धाः कुब्जकवामनातिविकलाः कुष्ठादि रोगान्विताः दारिद्रोपहता अतीव चपला बीभत्सरूपाः शठाः । भृत्या दुःखविपीडिताः परभवे चाल्पायुषः स्युर्ध्रुवं मातङ्गादिजातिष्वङ्गिहननान्मन्दा नरा निर्दयात् ॥१२५ ये घ्नन्ति दुष्टा हि शठाः पशूंश्च यष्ट्यादिभिस्ते बहुदुःखपूर्णाम् । तिर्यग्गतिं यान्ति सदाप्यमुत्र पापव्रजात्स्थावरजातियुक्ताम् ॥ १२६ कुर्वन्ति ये दुष्टधियच हिंसां, जीवस्य तेऽमुत्र बुधैवनिन्द्याः । कुष्ठयादिरोगं प्रतिपद्य लोके पतन्ति श्वभ्रे विषमेऽतिपापात् ॥१२७ २८५ बन्ध ही होता है ।११६ ।। इसका भी कारण यह है कि गौतमादि ऋषियोंने धर्मका पालन करना वा व्रतोंका पालन करना भावपूर्वक बतलाया है इसलिये बुद्धिमान लोगोंको जीवोंकी रक्षा करनेमें सदा अपने भाव लगाते रहना चाहिये ||११७|| उत्तम श्रावकोंको जीवराशिको क्षय करनेवाले प्रमादको छोड़कर घरमें प्रतिदिन होनेवाले पाँचों पापोंमें (चक्की, उखली, चूलि, बुहारी और पानी ये गृहस्थी के पाँच सून वा पाप कहलाते हैं) जीवोंकी रक्षाका सदा प्रयत्न करना चाहिये ||११८ ॥ व्रतोंकी रक्षा के लिये गृहस्थोंको अग्निके जलाने में भी सबसे अधिक प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि अग्निके जलानेमें छहों कायके जीवोंकी हिंसा होती है ||११९ || इसी प्रकार जो अंजलिमात्र भी विना छना पानी पीता है और विना छने एक घड़े से भी नहाता है उसके पापोंको हम लोग जान भी नहीं सकते ।।१२०|| बुद्धिमान लोगोंको भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा, प्रक्षाल आदि करनेके लिये बहुत थोड़े छने जलसे देखभाल कर स्नान करना चाहिये ॥ १२१ ॥ बहुत कहनसे क्या, थोडेसे में इतना समझ लेना चाहिये कि विद्वान् लोगोंको व्रतका पालन करनेके लिये मनसे, वचनसे और शरीरसे जीवोंकी रक्षा करनी चाहिये || १२२ || जो दुष्ट बलवान होकर दुर्बलोंको मारता है वह . परलोकमें उसी जीवके द्वारा अनेक बार मारा जाता है ||१२३|| अरे जो एक जरासे तृणके स्पर्श से दुःखी होता है वह दूसरे जीवों के शरीर पर किस प्रकार शस्त्र चलाता है ? ॥ १२४ ॥ जो मनुष्य निर्दयी हैं, जीवोंकी हिंसा करते रहते हैं वे मूर्ख अन्धे, कुब्जे, बौने, अङ्ग उपाङ्गोंसे रहित, कोढ़ आदि अनेक रोगों से घिरे हुए, दरिद्री, चंचल, देखने में घृणित, भयानक, मूर्ख, होते हैं, दूसरोंके दास होते हैं, अत्यन्त दु:खी होते हैं, परभवमें थोड़ी आयु पाते हैं और चांडाल आदि नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं ।। १२५ ।। जो मूर्ख और दुष्ट लकड़ी आदिसे पशुओंको मारते हैं वे भी अत्यन्त दुःखी होते हैं और मरकर उस पापसे परलोकमें तिर्यंच गतिमें ही जन्म लेते हैं ॥१२६|| जो 'दुष्ट जीव इस जन्ममें जीवोंकी हिंसा करते हैं वे बुद्धिमानोंके द्वारा सदा निन्दनीय गिने जाते हैं तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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