SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ श्रविकाचार-संग्रह सद्यो गालितनीरेण स्नानं वस्त्रादि धावनम् । प्रक्षालनं च यत्किचित्तत्सर्वं कुरु भो बुध ॥१०५ स्नानादिकं प्रकुर्वन्ति चागालितजलेन ये । अहिंसाख्यं व्रतं तेषां जीवघाताद्विनश्यति ॥१०६ गालयित्वा जलं दत्वा पशूनां यत्नतो बुधः । अगालितं न योग्यं स्यात्पातुं च जीवसंक्षयात् ॥१०७ यदैवोत्पद्यते कार्य जलसाध्यं तदेव तत् । गालयित्वा जलं धीमन् कुरु त्वं धर्महेतवे ॥१०८ वस्त्रेण स्थलस्निग्धेन नतनेनैव भो बुधाः । भाजनस्य द्विगुणेन गालय त्वं सदोदकम् ॥१०९ मुहूर्त गालितं तोयं प्रासुकं प्रहरद्वयम् । उष्णोदकमहोरात्रं पश्चात्सम्मूछितं भवेत् ॥११० माषमुद्गादिकं सर्व धान्यं कीटादिसम्भृतम् । जीवहिंसाकरं धर्मसिद्धयर्थं त्यज भो सुहृत् ॥१११ शत्रवो बालका नार्यः पशवो मण्डलादयः । मुष्टियट्यादिघातैश्च न हन्तव्या हि श्रावकैः ॥११२ अविचार्य सुखं दुःखं स्वान्ययोर्ये च देहिनः । घ्नन्ति यष्टयादिभिस्तेऽपि मनुजत्वेऽपि राक्षसाः ॥११३ आसनं शयनं सर्वं यत्नेन गमनादिकम् । निरीक्ष्य नयनाभ्यां च कुरुध्वं गृहिण: सदा ॥११४ कर्मबन्धो गृहस्थस्य व्रतभङ्गो भवेत् ध्रुवम् । यत्नहीनस्य जीवादिरक्षणे च वधं विना ॥११५ दयायुक्तगृहस्थस्य मृते जीवगणे क्वचित् । अज्ञानात्कर्मबन्धश्च व्रतभङ्गो भवे न वै ॥११६ पुष्ट करनेवाले शास्त्रोंको छोड़कर अहिंसारूप धर्मको स्वीकार कर और जीवों पर सदा दया कर ॥१०४॥ __ इसी अहिंसाको पालन करनेके लिये सब पानी उसी समय छानकर काममें लाना चाहिये । नहाना, कपड़े धोना, प्रक्षालन करना आदि सब काम उसी समयके छने हुए पानीसे करना चाहिये ॥१०५।। जो विना छने पानीसे स्नान आदि भी करते हैं उनसे जीवोंकी हिंसा होती है और जीवोंकी हिंसा होनेसे उनका अहिंसा व्रत नष्ट हो जाता है ॥१०६॥ हे धीमन् ! पशुओंको भी छना हुआ पानी ही देना चाहिये क्योंकि विना छने पानी में अनन्त जीवोंकी हिंसा होती है इसलिये वह पशुओंको देने योग्य नहीं है ।।१०७॥ हे धीमन् ! तुझे जलसे जो जो कार्य करने पड़े उन सब कामोंमें अपना धर्म धारण करनेके लिये छना हुआ पानी ही काममें ला ॥१०८|| जिस वस्त्रसे पानी छाना जाय वह मोटा होना चाहिये, चिकना होना चाहिये और नया होना चाहिये तथा जितना बड़ा बर्तनका मुँह हो उससे तिगुना होना चाहिये, ऐसे वस्त्रको दुहराकर फिर उससे जल छानना चाहिये ॥१०९।। वस्त्र-गालित जल एक मुहूर्त के बाद, प्रासुक जल दो प्रहरके बाद और उष्ण जल अहोरात्र (चौबीस घंटे) के बाद संमूच्छित हो जाता है, अर्थात् उसमें सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं, अतः उक्त अवधिके पश्चात् उसे काममें नहीं लेना चाहिये ॥११०॥ हे श्रावकोत्तम ! जिसमें कीड़े पड़ गये हों ऐसे उड़द, मूंग आदि धान्य कभी नहीं खाना चाहिये। क्योंकि ऐसे धान्योंके खानेसे जीवोंकी हिंसा होती है इसलिये धर्म पालन करने के लिये इनको छोड़ देना चाहिये ।।११।। श्रावकोंको लकड़ी वा थप्पड़ आदिसे शत्रु, बालक, स्त्री अथवा कुत्ते आदि पशुओंको भी कभी नहीं मारना चाहिये ॥११२।। जो प्राणी अपने तथा दूसरोंके सुख दुःखादिकों का विचार किये बिना ही लकड़ी आदिसे अन्य जीवोंको मार देते हैं वे मनुष्य होकर भी राक्षसके समान हैं ॥११३॥ गृहस्थी लोगोंको अपना बैठना, सोना, चलना आदि सब काम आंखोंसे देखकर प्रयत्नपूर्वक करने चाहिये जिससे किसी जीवकी हिंसा न होने पावे ॥११४॥ यदि जीवोंकी रक्षा करनेमें प्रयत्न न किया जाय तो विना किसी जीवकी हिंसा हुए भी व्रतका भंग होनेसे भवभवमें कर्मबन्ध होता है ॥११५।। जो गृहस्थ अपना हृदय दया पालन करने में लगाता है उसके अज्ञानसे यदि किसी जीवकी हिंसा भी हो जाय तो भी न तो उसके व्रतका भंग ही होता है और न कर्मका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy