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________________ २८३ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार धर्मार्थ सत्त्व संघातं ये शठाः ध्नन्ति मृत्युवम् । पिबन्ति जीवितार्थ ते विषं हालाहलं स्फुटम् ॥९२ उद्दिश्य चण्डिकां पापं जीवहिंसां करोति यः । दुःखादिशान्तये सोऽधीः दुखं क्लेशाविकं भजेत् ॥९३ पूजार्थ नोचदेवानां ये घ्नन्ति पशन बहून् । स्वसुखाय ते वाञ्छन्ति सुधां सर्पमुखाच्च ते ॥९४ भोगार्थ जीवराशि ये घ्नन्ति चेन्द्रियलालसाः । दुःखदुर्भगदारिद्रं ते लभन्ते भवे भवे ॥९५ पुत्रपौत्रकुटुम्बादिवृद्धयर्थ हन्ति यः पशून् । कुटुम्बपरिनाशं च प्राप्य स याति दुर्गतिम् ॥१६ अहिंसालक्षणो धर्मः उक्तः श्रीजिननायकैः । सर्वजीवहितायैव स्वर्गमुक्तिसुखप्रदः ॥९७ सोऽसत्यबलतः धर्म उक्तः सत्त्वक्षयंकरः । कुशास्त्रपाठकैरिन्द्रियस्वादुलालसैः ॥९८ दर्शयित्वा कुशास्त्र भो लोकानामर्थप्राप्तये । सर्वाक्षपोषकं धूर्ताः नयन्ति नारकों गतिम् ॥५९ हिंसा प्ररूपिता शास्त्रे दुष्टैर्यः भोगसिद्धये । अङ्गीकृता च लोकैर्येस्ते सर्वे यान्ति दुर्गतिम् ॥१०० ये कुर्वन्ति स्वयं हिंसां परैः संकारयन्ति ये । दृष्ट्वा हिंसां प्रानन्दं ये ते श्वभ्रे पतन्त्यघात् ॥१०१ क्वचित्सर्पमुखादैवादमृतं जायते नृणाम् । रात्री दिवाकरश्चैव न धर्मो जीवहिंसनात् ॥१०२ हिसया यदि जायेत धर्मो नाकं च निस्तषः । तदा स्वर्ग प्रयान्त्येव म्लेच्छाश्चाखेटकारिणः ॥१०३ त्यक्त्वा हिंसां च भो धोमन् ! शास्त्रां हिंसादिपोषकम् । अहिंसालक्षणं धर्म कुरु त्वमङ्गिनां दयाम् ॥१०४ अर्थात् उसके तीव्र पापकर्मोका बन्ध होता है ॥९१॥ जो मूर्ख केवल धर्मपालन करनेके लिये जीवोंके समूहका घात करता है वह अपने जीवित रहनेके लिये मृत्यु देनेवाले हलाहल विषको पीता है ।।१२।। जो अज्ञानी चंडी मुंडो आदि देवियोंके बहानेसे जीवोंकी हिंसा करता है वह अपने दुःखोंको शान्त करने के लिये अपने आप दुःख क्लेशादिकोंमें जा पड़ता है ॥९॥ जो जीव नीच देवोंकी पूजा करनेके लिये अनेक जीवोंको मारता है वह मनुष्य अपने सुखके लिये अमृतको सर्पके मुखसे निकालना चाहता है ॥९४॥ इन्द्रियभोगोंमें अत्यन्त लालसा रखनेवाले जो नीच अपने भोगोपभोगोंके लिये जीवराशिका विनाश करते हैं उन्हें मारते हैं वे महा दुःखी होते हैं, अत्यन्त कुरूप होते हैं और महा दरिद्री होते हैं ।१५।। जो नीच अपने पुत्र पौत्र और कुटुम्बकी वृद्धिके लिये पशुओंको मारता है उसके सब कुटुम्बका नाश होता है और अन्तमें उसे अनेक दुर्गतियोंमें परिभ्रमण करना पड़ता है ॥९६।। श्री जिनेन्द्रदेवने धर्मका स्वरूप अहिंसामय कहा है क्योंकि समस्त जीवोंका.कल्याण इसी अहिंसामय धर्मसे हो सकता है और इसी धर्मसे स्वर्ग-मोक्षके सुख प्राप्त हो सकते हैं ।।९७। परन्तु कुशास्त्रोंको पढ़नेवाले और इन्द्रियोंके स्वादकी लालसा रखनेवाले मूर्ख लोगोंने असत्य भाषण करके झूठ बोल करके जोवोंको नाश करनेवाली हिंसाको ही धर्म बतला दिया है ।।९८॥ जो धूर्त लोग समस्त इन्द्रियोंको तृप्त करनेवाले कुशास्त्रोंको दिखा दिखाकर लोगोंसे धन इकट्ठा करते हैं वे अन्तमें मरकर अवश्य ही नरक गतिमें उत्पन्न होते हैं ॥९९।। जिन दुष्टोंने केवल भोगोपभोगोंके लिये अपने शास्त्रोंमें हिंसाका निरूपण किया है और जिन लोगोंने उसे स्वीकार किया है वे सब मरकर दुर्गतिमें उत्पन्न होंगे ॥१००।। जो स्वयं हिंसा करते हैं वा दूसरोंसे कराते हैं अथवा हिंसाको देखकर आनन्द मानते हैं वे सब उस पापसे नरकमें पड़ते हैं ॥१०१॥ यदि कदाचित् दैवयोगसे सर्पके मुंहसे अमृत उत्पन्न हो जाय अथवा रात्रिमें सूर्य दिखाई दे तथापि जीवोंकी हिंसासे कभी धर्म नहीं हो सकता ॥१०॥ यदि हिंसासे धर्म होता हो और स्वर्गादिकके सुख प्राप्त होते हों तो सदा शिकार खेलनेवाले म्लेच्छ लोगोंको भी स्वर्गकी ही प्राप्ति होनी चाहिये ॥१०३।। इसलिये हे बुद्धिमान् ! हिंसाको छोड़कर तथा हिंसा आदिको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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