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________________ २८२ श्रावकाचार-संग्रह दयाहीनेन किं तेन धर्मेण तपसाऽथवा । कार्यसिद्धिर्भवेन्नैव जीवितव्येन चाङ्गिनाम् ॥८१ . कृपासमं भवेन्नैव पूजा दानं जपादिकम् । तपो धर्मं च सर्वेषां दयाबीजं यतो मतम् ॥८२ भूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च । धर्मो जीवदयोपेतस्तद्विपक्षोऽशुभप्रदः ॥८३ एतत्समयसर्वस्वमेतच्चारित्रजीवितम् । मूलं धर्मतरोर्यच्च सर्वजीवाभिरक्षणम् ॥८४ जीवहिंसादिसंकल्पं ये कुर्वन्ति शठा हि ते । पापात् श्वभ्रे पतन्त्येव शालिशिक्थ्यादिमत्स्यवत् ॥८५ कासश्वासमहापित्तवातकुष्ठादयो ध्रुवम् । बृहद्रोगाः प्रजायन्ते प्राणिघातादिहाङ्गिनाम् ॥८६ दोनत्वं निर्धनत्वं च भीरुत्वं स्वल्पजीवितम् । भवेज्जीवस्येहामुत्र दारिद्रयं तां दयां विना ॥८७ पुत्रपौत्रस्वसृभार्यामातृपितृस्वबान्धवैः । प्राप्नुवन्ति वियोगं च सत्त्वघातात्सहाङ्गिनः ॥८८ किमत्र बहुनोक्तेन यत्किचिदुःखमञ्जसा । तत्सर्वं हि श्रयेदङ्गी चेहामुत्र कृपां विना ॥८९ कुर्वन्ति प्राणिनां घातं येऽधमा रोगशान्तये। वातपित्तमहाकुष्ठादिकं तेषां भवेद् ध्रुवम् ॥९० विधत्ते देहिनां हिंसां योऽधर्मो मङ्गलाय वै । अमङ्गलं भजेत्सोऽपि पापात्सर्वं कुदुःखदम् ।९१ दयारहित है उस धर्म, तप वा जीवनसे इस संसारमें कोई लाभ नहीं और न ऐसे दयाहीन धर्म, तप वा जीवनसे कोई कार्यसिद्धि हो सकतो है ॥८१।। इस दयाके समान पूजा, दान, जप, तप, धर्म आदि कुछ नहीं हो सकता क्योंकि यह दया उन सबका बीज है, सबका मुख्य कारण है ।।८।। 'जो जीवोंकी दयासे रहित है वह अनेक दुःखोंको देनेवाला अधर्म है' यह बात सब शास्त्रोंमें और सब मतोंमें सुनी जाती है ।।८३।। यह दयारूप धर्म ही समस्त शास्त्रोंका समस्त मतोंका सर्वस्व है, यही सजीव चारित्र है, यही धर्मरूपी वृक्षका मूल है और यही समस्त जीवोंका रक्षक है ॥८४॥ जो मूर्ख जीवोंकी हिंसाका संकल्प भी करते हैं वे उस पापकर्मके उदयसे तंदुल' मत्स्यके समान नरक में ही पड़ते हैं ।।८५।। इस संसारमें जीवोंको हिंसा करनेसे कास (खाँसी), श्वास (दमा), महापित्त, वात, कोढ़ आदि अनेक बड़े बड़े महा रोग उत्पन्न हो जाते हैं ॥८६॥ दयाके विना ही यह जीव इस लोकमें दोन होता है, निर्धन होता है, डरपोक होता है, थोड़ो आयुवाला होता है और दरिद्री होता है तथा परलोकमै भो ऐसे ही अनेक दुःखोंको प्राप्त होता है ।।८७|| यह जीव प्राणियोंका घात करनेसे ही पुत्र, पौत्र, बहिन, स्त्री, माता-पिता और भाई आदिका तीव्र वियोग पाता है अर्थात् उनके वियोगसे उत्पन्न होनेवाले दुःखको भोगता है ।।८८।। बहुत कहनेसे क्या लाभ है, थोड़ेसेमें इतना समझ लेना चाहिये कि इस लोकमें वा परलोकमें जितने दुःख हैं वे सब प्राणियों को दयाका त्याग करनेसे हो होते है ।।८९|| जो नीच मनुष्य केवल रोग शान्त करनके लिये प्राणियोंका घात करते हैं उनके वात पित्त और महाकोढ़ आदि भयंकर रोग अवश्य उत्पन्न होते हैं ।।९०।। जो नीच अपना वा पुत्र पोत्राका कल्याण करनेके लिये जीवोंकी हिंसा करता है वह अनक अमंगलोंको-दुःखोंको प्राप्त होता है तथा भयंकर दुःख देनेवाले समस्त पापोंको प्राप्त होता है १. स्वयंभूरमण समुद्रमें सबसे बड़ा राघवमत्स्य होता है उसकी आँखपर एक तंदुलमत्स्य बैठा रहता है। राघवमत्स्य सबसे बड़ा है इसलिये उसके मुंह फाड़ते ही अनेक जीव उसके मुंहमें आ जाते हैं और उनमेंसे बहुत साँसके साथ बाहर निकल जाते हैं । तंदुलमत्स्य आँखपर बैठा हुआ यह सोचा करता है कि यह मत्स्य मूर्ख है जो इन छोटे मत्स्योंको मुहके भीतर आ जानेपर भी फिर बाहर जाने देता है, यदि मैं होता तो एकको भी बाहर न जाने देता मनको खा जाता। बस सदाके इसी संकल्पसे वह मरकर सातवें नरक जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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