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________________ २८६ श्रावकाचार-संग्रह हिंसां श्वभ्रप्रतोलिकां बुधजनैनिन्द्यां शठः स्वीकृतां रोगक्लेशभयादिदुःखजननों पापाविखानि सदा। स्वर्गद्वारमहार्गला स्वपरयोर्वाधाकरां दुस्त्यजां मुक्तिस्त्रीभयदां त्यज त्वमपि भो जोवेषु कृत्वा दयाम् ॥१२८ भ्रातः सर्वसुखाकरां मुनिजनैः सेव्यां दयां भो भज मुक्तिद्वारप्रवेशमार्गकुशलां श्वभ्रगृहेष्वर्गलाम् । सद्विद्यामलरत्नखानिपरमां नाकगृहे दीपिकां मत्वा जीवकदम्बकं हि स्वसमं सर्वेषु सत्त्वेषु वै ॥१२९ समलसुखनिधानं धर्मवृक्षस्य मूलं, सकलसमितिसाध्यं तीर्थनाथस्य सेव्याम् । विमलनियमकन्दं स्वर्गमोक्षकहेतोस्त्वमपि भज व्रतं भो जीवरक्षाख्यमेव ॥१३० सर्वातिचारनिर्मुक्तं अहिंसाख्यमणुव्रतम् । यो धत्ते मतिमान् सोऽपि याति षोडशमं दिवम् ॥१३१ भवन्त्यणुव्रतस्यैव व्यतिचारा हि ये मुने । अहिंसावतशुद्धयर्थं तान् सर्वान् मे निरूपय ॥१३२ निश्चलं स्ववशे चित्तं कृत्वा त्वं शृणु श्रावक । व्यतीपातान् प्रवक्ष्यामि ते धर्माय मलप्रदान् ॥१३३ त्वं बन्धवधच्छेदातिभारारोपणमेव हि । अन्नपाननिरोधं च त्यजातिचारपञ्चकम् ॥१३४ । रज्ज्वादिभिः पशूनां यो विधत्ते बन्धनं दृढम् । अतिचारो भवेद्बन्धो नाम तस्य व्रतस्थ वै ॥१३५ यष्टयादिभिर्मनुष्यस्त्रीपशूनां हन्ति योऽधमः । भवेद्व्यतिक्रमस्तस्य वधो नाम विरूपकः ॥१३६ कोढ़ आदि अनेक रोगोंको पाकर परलोकमें उस पापकर्मके उदयसे विषम नरकमें ही जन्म लेते हैं ।।१२७॥ यह हिंसा नरककी देहली है, विद्वानोंके द्वारा सदा निंदनीय है। रोग, क्लेश, भय आदि अनेक दुखोंकी जननी है, मूर्ख लोग ही इसको स्वीकार करते हैं, अनेक पापोंकी खानि है, स्वर्गका द्वार बन्द करनेके लिये अर्गल है, अपनेको दूसरोंको सबको दुःख देनेवाली है, बड़ी कठिनतासे छूटती है और मुक्ति लक्ष्मीको भय देनेवाली (दूर भगानेवाली) है। इसलिये हे भव्य ! तू जीवोंपर दया कर इस पापमयी हिंसाको छोड़ ॥१२८॥ हे भ्रात ! तू समस्त जीवोंको अपने समान मानकर सब जीवोंपर दया कर, क्योंकि यह दया सबको सुख देनेवाली है। मुनि लोग भी इसकी सेवा करते हैं, मोक्षमार्गमें प्रवेश करानेके लिये यह अत्यन्त कुशल है। नरकरूपी घरको बन्द करने के लिये अर्गल है, सद्धर्मरूपी निर्मल रत्नोंकी खानि है और स्वर्ग लोककी देहली है, ऐसा समझकर इसको सदा धारण करना चाहिये ॥१२९|| यह जीवोंकी रक्षा करनेवाला व्रत निर्मल सुखकी निधि है, धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, सब समितियोंसे सिद्ध होता है, तीर्थकर परमदेव भी इसकी सेवा करते हैं, यह निर्मल यशको देनेवाला है और स्वर्गमोक्षका कारण है। इसलिये हे भव्य ! तू भी इस व्रतका सेवन कर ॥१३०।। जो बुद्धिमान इस अहिंसा अणुव्रतको समस्त अतीचारोंको छोड़कर पालन करता है वह अवश्य ही सोलहवें स्वर्ग में जाकर उत्तम देव होता है ॥३१॥प्रश्न-हे मुने ! इस अहिंसा अणुव्रतको निमल निर्दोष पालन करनेके लिये इस व्रतके जितने अतिचार हैं उन सबको मेरे लिये निरूपण कीजिये ॥१३२।। उत्तर-हे वत्स ! तू चित्तको एकाग्रकर सुन । मैं केवल धर्मकी वृद्धिके लिये व्रतोंमें दोष उत्पन्न करनेवाले अतीचारोंको कहता हूँ॥१३३।। इस अहिंसा अणुव्रतके बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध ये पाँच अतिचार हैं। इन पांचों अतीचारोंको तू छोड़ ॥१३४॥ पशुओंको रस्सी आदिसे मजबूत बाँध देना (जिससे कि वे अग्नि आदि लगनेपर भी भाग न सके) वह बंध नामका अहिंसाणुव्रतका पहिला अतिचार गिना जाता है ॥१३५।। जो नीच मनुष्य, स्त्री वा पशुओंको लकड़ी आदिसे मारते है उनको यह वध नामका दूसरा निंद्य अतीचार लगता है ।।१३६।। जो बुद्धिहीन कान नाक आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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