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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार २७९ सर्वदुःखाकरां पापवल्लों भयकुकीर्तिदाम् । परनारों त्यज त्वं भो 'श्वभ्रगृहप्रतोलिकाम्' ॥४४ एकैकव्यसनासक्ता नष्टा जीवा अनेकधा । यः सर्वव्यसनासक्तो दुःखभाक् किं भवेन्न सः ॥४५ द्यूताद धर्मसुतो राजा प्राप्तो दुःखमनेकधा । राज्यभ्रष्टाटवीवासः संगरादिभवं धनम् ॥४६ पलाशनवशानष्टः इह लोके वको नृपः । राज्यनाशं परिप्राप्य मग्नः संसारसागरे ॥४७ मद्यपानात्प्रनष्टा हि यादवा नृपनन्दनाः । इहैव प्राणपर्यन्तं प्राप्य दुःखं कुमार्गगाः ॥४८ चारुदत्तेन संप्राप्तं दुःखं वेश्याप्रसंगतः । द्रव्यनाशभवं विष्ठामध्यनिक्षेपजे परम् ॥४९ ब्रह्मदत्तो नृपः प्राप्तो दुःखमाखेटतः स्वयम् । भवाब्धौ बहुशो घोरं मज्जनोन्मज्जनादिजम् ॥५० चौर्यव्यसनतो घोरं दुःखं प्राप्नोति दुस्सहम् । शिवभूतिरिहामुत्र क्लेशबन्धवधादिजम् ॥५१ दशास्यः सीताहरणाद् गतः श्वभ्रं त्रिखण्डराट् । कुकीति राज्यनाशं च वधं प्राप्य कुमार्गगः ॥५२ एतेषां व्यसनाज्जाता ज्ञेया शास्त्रे निरूपिताः । कथाः संवेगदाः तीनं पापभोतिप्रदाः वराः ॥५३ अन्ये ये बहवो नष्टा व्यसनासक्तचेतसा । कयां को गदितुं तेषां समर्थो भुवनत्रये ॥५४ एकैकव्यसनाज्जीवा श्वध्र प्राप्ता अनेकशः । यः सप्तव्यसनासक्ति धत्ते श्वभ्रं न याति किम् ॥५५ व्यसनान्येव यः त्यक्तुमशक्तो धर्ममोहते । चरणाभ्यां विना खञ्जो मेरुमारोहितुं स च ॥५६ तू छोड़ ॥४३।। परस्त्रीसेवन सब दुःखोंकी खानि है, पापकी बेल है, भय अपकीति देनेवाली है और नरककी देहली है इसलिये परस्त्रीसेवन करना भी सर्वथा छोड़ देना चाहिये ॥४४॥ इन व्यसनोंमेंसे एक एक व्यसनको सेवन करनेवाले अनेक जीव नष्ट हो चुके हैं फिर भला जो समस्त व्यसनोंमें आसक्त है वह क्यों दुःखी नहीं हो सकता? अर्थात् वह अवश्य महा दुःखी होगा ॥४५॥ जूआके खेलनेसे राजा युधिष्ठिरको अनेक प्रकारके दुःख प्राप्त हुए थे उन्हें राज्यसे भ्रष्ट होना पड़ा था, निर्जन वनमें निवास करना पड़ा था और फिर भारी युद्ध करना पड़ा था ॥४६॥ मांस सेवन करनेसे राजा बकको इस लोकमें ही राजभ्रष्ट होना पड़ा था-अपने राज्यसे हाथ धोना पड़ा था और अन्तमें इस अपार संसारसागरमें मग्न होना पड़ा था ॥४७॥ मद्यपानके सेवन करनेसे कुमार्गगामी राजपुत्र यादव अनेक दुःखोंको पाकर इसी लोकमें प्राण नाशको प्राप्त हुए थे ॥४८॥ वेश्यासेवनसे सेठ चारुदत्तको कितने दुःख भोगने पड़े थे, उनका सब द्रव्य नष्ट हो गया था और अन्तमें उन्हें विष्टामें फेंक दिया गया था ॥४९॥ शिकार खेलनेसे राजा ब्रह्मदत्तको बहुससे दुःख भोगने पड़े थे और अन्तमें संसाररूपी महासागरमें परिभ्रमण करनेका महा घोर दुःख भोगना पड़ा था ॥५०॥ चोरी करनेसे शिवभूतिको घोर और असह्य दुःख भोगने पड़े थे, तथा इस लोकमें भी वध बंधन आदिके अनेक दुःख भोगने पड़े थे ॥५१।। सीताका हरण करने मात्रसे ही तीन खण्डके स्वामी रावणकी संसारभरमें अपकीर्ति हुई थी, उसका राज्य नष्ट हुआ था, उस कुमार्गगामीको मरना पड़ा था, और अन्तमें नरक जाना पड़ा था ॥५२॥ ये सब एक एक व्यसनमें आसक्त होनेवालोंके नाम हैं इन सबकी कथा संवेग बढ़ानेवाली है और पापोंसे डरानेवाली है इसलिये अन्य शास्त्रोंसे अवश्य जान लेनी चाहिये ॥५३॥ इन व्यसनोंमें आसक्त हो जानेके कारण और भी बहुतसे लोग नष्ट हुए हैं उन सबकी कथाओंको तीनों लोकोंमें कोई कह भी नहीं सकता ॥५४॥ एक एक व्यसनके सेवन करनेसे कितने ही जीवोंको अनेक बार नरकोंमें जाना पड़ा है, फिर भला जो सातों व्यसनोंका सेवन करते हैं वे भला नरकसे कैसे बच सकते हैं ॥५५॥ जो मनुष्य इन व्यसनोंको विना छोड़े ही धर्म धारण करनेकी इच्छा करता है, वह मूर्ख बिना पैरोंके ही मेरुपर्वतपर चढ़ना चाहता है ॥५६।। इस संसारमें सात ही नरक हैं और सात ही व्यसन हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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