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________________ २८. श्रावकाचार-संग्रह सप्तैवात्र नरकाणि सप्तैव व्यसनानि तत् । अनुक्रमेण गच्छन्ति जीवास्तल्लम्पटाशयाः ॥५७ धर्मशत्रुविनाशार्थं पापराज्ञा दृढीकृतम् । स्वराज्यं सप्तव्यसनैरङ्गैरिव यथापरे ॥५८ कुगतिगमनहेतुं दुःखशोकादिबीजं, दुरितवनकुमेधं धर्मशत्रु कुसङ्गम् । परभवशतखानि सर्वदारिद्रमूलं, जहि व्यसनसमस्तं शत्रुवद्धर्महेतोः ॥५९ दर्शनेन समं योऽत्र सोऽष्टमूलगुणान् सुधीः । दधाति ध्यसनान्येव त्यक्ता दार्शनिको भवेत् ॥६० दर्शनाख्यं प्रव्याख्याय प्रतिमा मूलकारणम् । इदानी खलु वक्ष्येऽहं बताख्या प्रतिमा वराम् ॥६१ पञ्चैवाणुव्रतानि स्युस्त्रिधापि स्याद्गुणवतम् । शिक्षावत चतुर्भेदं द्वादशैव व्रतानि च ॥६२ स्थूलहिंसानृतस्तेयान्मैथुनाच्च परिग्रहात् । विरतिः श्रावकाणां तत् पञ्चभेदमणुव्रतम् ॥६३ स्वयं हि त्रसजीवानां हिंसां नैव करोति यः । कारयति न चान्येन कृतं नैवानुमन्यते ॥६४ मनोवाक्काययोगेन दयातत्परचेतसः । आद्यं व्रतं भवेत्तस्य मूलं सर्वव्रतस्य भो ॥६५ पूर्वोक्तान् जीवभेदान् भो ज्ञात्वा मित्र दयां कुरु । सर्वसत्त्वेषु मुक्त्यर्थं भयभीतेषु प्रत्यहम् ॥६६ अहिंसा जननी प्रोक्ता व्रतादीनां गणाधिपैः । सर्वजीवहितां शश्वन्मातेव हितकारिणी ॥६७ जन्मभूमिर्गुणानां भी दया प्रोक्ता मुनीश्वरैः । सर्वसौख्यकरा सारा सारसर्वगुणप्रदा ॥६८ इसलिये जो जीव इन व्यसनोंमें आसक्त रहते हैं वे अवश्य ही नरकोंमें पड़ते हैं ॥५७॥ पापरूपी राजाने धर्मरूपी शत्रुको नाश करनेके लिये और अपना स्वराज्य सुदृढ़ करनेके लिये इन सातों व्यसनोंको सेनाके समान स्थापित कर रक्खा है ।।५८॥ ये सातों व्यसन अनेक दुर्गतियोंमें जन्म देनेवाले हैं, दुःख शोक आदिके मुख्य कारण हैं, पापरूपी वनको बढ़ानेके लिये मेघकी वर्षाके समान हैं, धर्मके शत्रु हैं, बुरी संगति देनेवाले हैं, परभवमें परिभ्रमण करानेवाले हैं और सब प्रकारकी दरिद्रताके मूल कारण हैं। इसलिये हे मित्र ! तू धर्म धारण करनेके लिये शत्रुके समान इन सातों व्यसनोंका त्याग कर ॥५९|| जो बद्धिमान् सम्यग्दर्शनके साथ साथ ऊपर कहे हुए आठों मूलगुणोंका पालन करता है और सातों व्यसनोंका त्याग करता है वह दार्शनिक अथवा दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाला कहलाता हे ॥६०॥ इस प्रकार सव प्रतिमाओंकी मूल कारण ऐसी दर्शन प्रतिमाका स्वरूप वर्णन किया। अब आगे उत्तम व्रत प्रतिमाका निरूपण करते हैं ॥६॥ पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये गृहस्थोंके बारह व्रत कहलाते हैं ॥६॥ स्थूल हिंसाका त्याग, स्थूल असत्यका त्याग, स्थूल चोरीका त्याग, स्थूल अब्रह्मका त्याग और स्थूल परिग्रहका त्याग इस प्रकार हिंसा झूठ चोरी कुशील परिग्रह इन पाँचों पापोंसे एक देश विरक्त होना श्रावकोंके पाँच अणुव्रत कहलाते हैं ॥६३।। अपने हृदयको दया पालन करनेमें सदा तत्पर रखनेवाला जो मनुष्य मन, वचन, कायसे न तो कभी स्वयं वस जीवोंको हिंसा करता है न दूसरोंसे कराता है और न कभी त्रस जीवोंकी हिंसामें अनुमति देता है उसके सबसे पहिला अहिंसाणुव्रत होता है। यह अहिंसा अणुव्रत अन्य सब व्रतोंका मूल है ।।६४-६५।। हे मित्र ! जीवोंके सब भेद पहिले बताये जा चुके हैं अतएब मोक्ष प्राप्त करनेके लिये अनेक प्रकारके भयोंसे भयभीत हुए समस्त जीदोंपर तू प्रतिदिन दया कर ॥६६॥ श्री गणधरादि देवोंने इस अहिंसाको स. व्रतोंकी जननी वा माता बतलाया है, क्योंकि यह अहिंसा समस्त जीवोंकी सदा हित करनेवाली है, और माताके समान सबका कल्याण करनेवाली है ॥६७।। मुनिराजोंने इस दयाको सब जीवोंको जन्मभूमि बतलाया है, यह दया सबको सुख देनेवाली है, सबमें सारभूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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