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________________ चावकाचार-सं क्रीडां प्रकुर्वन्ति ये सका अत्र ते ध्रुवम् । अकीर्ति द्रव्यनाशं च प्राप्य वने पतन्त्यहो ॥३४. चूतमूकानि सप्तैव व्यसनानि भवन्ति ये । चूतं यो रमते तस्य स्युः सर्वव्यसनाम्यकम् ॥३५ युधिष्ठिरादयो द्यूतयोगातटा नृपा यदि । अन्यो यो रमते चूर्त न स्थारिक सोऽपि दुःखभाक् ॥३६ द्यूतासक्तस्य यत्पापं यच्च दुःखं भवे भवे । वधबन्धादिकं यत्स्यासद्वक्तुं कः प्रभुभवेत् ॥३७ दुरितवनकुमेघं दुःखदारिद्रबीजं, नरकगृहप्रवेशं मुक्तिगेहे कपाटम् । सकलव्यसनमूलं सर्वदाऽकोतिहेतुं त्यज कुगतिकरं त्वं धर्मलाभाय द्यूतम् ॥ ३८ सत्वघातादिसंजातं श्वभ्रतियंग्गतिप्रवम् । निन्द्यं पापकरं भ्रातस्त्यज त्वं निखिलामिषम् ॥३९ सूक्ष्मं जीवभृतं मद्यं विवेकबुद्धिनाशकम् । धर्मविध्वंसकं प्राघप्रदं त्यज सुखाय भो ॥४० मद्यमांसादिसंसक्तां मातङ्गाविषु लम्पटाम् । सर्पिणीमिव भो मित्र त्यज वेश्यां कुकीतिदाम् ॥४१ जीवहिंसाकरं पापं दुःखदुर्गतिदायिकम् । वघबन्धकरं वक्षः आलेटं दूरतस्त्यजेत् ॥४२ वधाङ्गच्छेदबन्धा विदुःखवारिकारणम् । परपोडाकरं वत्स चौर्यायं व्यसनं त्यज ॥४३ 206 मांस खाना, मद्यपान करना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्रीसेवन करना ये सात व्यसन कहलाते हैं। ये सातों व्यसन पापोंकी जड़ हैं इसलिये हे भव्य ! तू इनका त्याग कर ॥३३॥ जो दुष्ट मनुष्य इस संसारमें जुआ खेलते हैं वे संसारमें अपनी अपकीर्ति फैलाते हैं, उनके द्रव्यका नाश होता है और अन्तमें नरकमें पढ़ते हैं ||३४|| सातों व्यसन इस जुआ खेलनेसे ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये जो जुआ खेलता है उसे समस्त व्यसनोंके सेवन करनेका ही फल प्राप्त होता है ||३५|| मरे, जिस जूआके खेलनेसे राजा युधिष्ठिर जैसे नष्ट हो गये, फिर भला जुआ खेलनेवाले अन्य साधारण लोग किस प्रकार दुःखी नहीं हो सकते ? अर्थात् अवश्य होते हैं ||३६|| जुआ खेलनेवालोंको जो पाप लगता है तथा भवभवमें जो बघ बंधन आदिके दुःख भोगने पड़ते हैं उन्हें कौन कह सकता है ? अर्थात् वे पाप और दुःख किसीसे कहे भी नहीं जा सकते ||३७|| यह जुआ खेलना पापोंके वनको बढ़ानेके लिये मेघकी धाराके समान है, दुःख और दरिद्रताका मुख्य कारण है, नरकरूपी घरमें ले जानेवाला है, मोक्षमहलके लिये किवाड़ जुड़ा देनेवाला है, समस्त व्यसनोंका मूल कारण है और सदाकालतक अपकीर्तिका कारण है इसलिये हे मित्र ! तू धर्म प्राप्त करनेके लिये कुगतियोंमें डालनेवाले इस जूबाका त्याग कर ||३८|| इसी प्रकार मांस भी जीवोंके घात होनेसे उत्पन्न होता है, नरक और तियंच गतिके अनेक दुःख देनेवाला है, fia है, पापकी खानि है, इसलिये हे भ्रात ! इसका भी तू त्याग कर ||३९|| मद्य भी अनेक सूक्ष्म जीवोंसे भरा हुआ है, विवेक और बुद्धिको नाश करनेवाला है, अनेक पापोंको बढ़ानेवाला है - और धर्मका ध्वंस करनेवाला है इसलिये सुख प्राप्त करनेके लिये इस मद्यका भी त्याग कर ||४०| यह वेश्या मद्य मांस आदिमें सदा आसक्त रहती है, चांडाल आदिकोंमें भी लंपट रहती है, और सदा अपकीर्ति देनेवाली है इसलिये हे मित्र ! सर्पिणीके समान इस वेश्याको तू दूरसे ही छोड़ ॥४१॥ शिकार खेलने में भी अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, हिंसासे पाप, दुःख और दुर्गंतियाँ प्राप्त होती हैं तथा अनेक बार वघ बंधन आदिके दुःख सहने पड़ते हैं इसलिये इस शिकारको भी दूरसे त्याग कर ||४२ || चोरी करनेसे कभी मर जाना पड़ता है, कभी शरीर काटा जाता है, बंधन में पड़ना पड़ता है तथा और भी अनेक प्रकारके दुःख तथा दरिद्रता प्राप्त होती है। इसके सिवाय चोरी करनेसे दूसरोंको सदा दुःख पहुँचाना पड़ता है इसलिये है वत्स ! इस चोरीको भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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