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________________ २६६ श्रावकाचार-संग्रह 1 आचर्यते शठैर्लोके परित्यक्त्वा विचारणम् । प्ररूपितं जिनेस्तद्धि लोकमूढत्वमेव भो ॥१३ परीक्षालोचनैस्त्वं सज्जैनं धर्मं परोक्ष्य सः । मिथ्यात्वं च समादाय त्यज मूढत्रयं सुकृत् ॥१४ मूढभावेन यो मूढो धर्मं गृह्णाति लोकजम्। पुण्याय स विषं भुङ्क्ते सुखाय प्राणनाशनम् ॥१५ सज्जातिसत्कुलैश्वर्यरूपज्ञानतपः प्रजम् । बलशिल्पिभवं मित्र त्यज त्वं मदमञ्जसा ॥१६ सन्मातृपक्षसञ्जातं कुटुम्बादिकदम्बकम् । विनश्वरं परिज्ञाय जात्याख्यं त्वं मदं त्यज ॥१७ सदम्बानां त्वया मित्र पीतं दुग्धं भवार्णवे । भिन्नभिन्नविजातीनामधिकं सागराम्बुधेः || १८ पितृपक्षसमुद्भूतं चलं दर्भाग्रबिन्दुवत् । ज्ञात्वा स्वं स्वजनं दक्षः कुलनाममदं त्यजेत् ॥१९ धनधान्यादिकं गेहं सर्व राज्यादिकं बुधैः । अग्न्यादिभिश्चलं मत्वा चैश्वर्याख्यं मदं त्यजेत् ॥२० शरीरं सुन्दराकारमनित्यं वस्त्रशोभितम् । जराव्याध्यग्निभिर्दग्धं रूपाख्यं त्वं मदं त्यज ॥२१ किञ्चिदज्ञानं परिज्ञाय मदो न क्रियते बुधैः । अपेक्षया हि पूर्वस्य अतो न ज्ञायते लवः ||२२ तपसा संभवो दक्षंमंदो न क्रियते मनाक् । तपश्चापेक्षया पूर्वमुनेः कर्तुं न शक्यते ॥ २३ संप्राप्य सबलं देहं गवं त्याज्यं विवेकिभिः । पुष्टमन्नादिभिस्तद्धि यतो याति क्षयं क्षणात् ॥ २४ मान लेते हैं इसीको श्रीजिनेन्द्रदेव लोकमूढता कहते हैं ||१२-१३ || हे वत्स ! तू परीक्षारूपी नेत्रोंसे देखकर मिथ्यात्वको छोड़कर जैन धर्मको स्वीकार कर और तीनों मूढताओंका त्याग कर ॥१४॥ जो मूर्ख इन तीनों मूढ़ताओंको स्वीकार करता है वह जीवित रहने के लिये विप खाता है अथवा सुखी रहनेके लिये अपने प्राणोंका घात करता है ||१५|| सज्जाति, सत्कुल, ऐश्वर्य, रूप, ज्ञान, तप, बल और शिल्प आदि विद्या - इन आठोंके आश्रय मद करना आठ मद कहलाते हैं । हे मित्र ! तू इनको शीघ्र ही छोड़ || १६ || मातृपक्ष में उत्पन्न हुए कुटुम्ब समूहको जाति कहते हैं । संसारके सब कुटुम्बादिक नश्वर हैं- नाश होनेवाले हैं यही समझकर हे शिष्य ! तू इस जातिके मदको छोड़ || १७|| हे मित्र ! इस संसारसागर में परिभ्रमण करते हुए तूने भिन्न-भिन्न सब जातियोंकी माताओंका अलग अलग इतना दूध पिया है कि जो एक एक जातिका इकट्ठा किया जाय तो वह महासागरसे भी अधिक हो जाय । फिर भला उसका अभिमान करना कैसा ? || १८ || पिताके पक्ष में उत्पन्न हुए कुटुम्बको कुल कहते हैं । ये स्वजन परिजन भी दाभकी नोंकपर पड़ी हुई जलकी बूँदके समान चंचल हैं, शीघ्र नष्ट होनेवाले हैं यही समझकर कुलका अभिमान कभी नहीं करना चाहिये ||१९|| धन धान्य घर राज्य आदि भी अग्नि चोर आदिके द्वारा नष्ट होता है किसीकी सम्पदा सदा नहीं बनी रहती, यही समझ कर ऐश्वर्यका मद छोड़ देना चाहिये ||२०|| यह शरीर सुन्दर होनेपर भी अनित्य है, किसी न किसी दिन अवश्य नष्ट होगा, यह केवल वस्त्रोंसे ढका हुआ ही अच्छा दिखता है, वास्तवमें बुढ़ापा रोग आदि अनेक व्याधियोंसे घिरा हुआ है यही समझकर बुद्धिमानोंको रूपका अभिमान छोड़ देना चाहिये ||२१|| बुद्धिमानोंको थोडा-सा ज्ञान पाकर कभी अभिमान नहीं करना चाहिये क्योंकि यदि पहिलेके ज्ञानियोंकी तुलना की जाय तो उनके सामने अबका ज्ञान एक अंश मात्र भी नहीं है ॥२२॥ इसी प्रकार चतुर पुरुषोंको तपश्चरणका अभिमान भी नहीं करना चाहिये । क्योंकि पहिलेके मुनि जो तपश्चरण करते थे उसका तो एक अंश भी इस समय नहीं किया जा सकता ||२३|| चतुर पुरुषोंको बलवान शरीर पाकर भी उसका अभिमान छोड़ देना चाहिये । क्योंकि यह शरीर केवल अन्नादिकसे पुष्ट होता है और क्षणभर में नष्ट हो जाता है || २४|| इसी प्रकार सुन्दर लेख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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