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________________ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार शिल्पिगवं न कर्तव्यं सुलेखादि-समुद्भवम् । विचित्रं दर्शनायैव त्वया वत्साशुभप्रदम् ॥२५ सन्मार्दवं समादाय दुःखदुर्गतिकारणम् । मदाष्टकं त्यजेद्धीमान् दर्शनज्ञानप्राप्तये ॥२६ अहंकारं हि यः कुर्यादष्टभेदं कुदुःखदम् । विनाश्य दर्शनं सोऽपि नीचो नीचति वजेत् ॥२७ मिथ्यादर्शन कुज्ञानकुचारित्रत्रयात्मकः । तदयुक्तपुरुषाश्चैव षडनायतनं भवेत् ॥२८ । कुदेवकुगुरौ मूढैः कुधर्म पापदुःखदे । निश्चयः क्रियते योऽत्र तन्मिथ्यादर्शनं मतम् ॥२९ प्रणोतं वेदशास्त्रादौ स्मृत्यादौ वा कुदृष्टिभिः । श्रुतं पापकर दक्षैस्तन्मिथ्याज्ञानमुच्यते ॥३० पञ्चाग्निसाधने योऽपि कायक्लेशो विधीयते । कुत्सिततपसा मूढैस्तन्मिथ्याचरणं भवेत् ॥३१ मिथ्यासम्यक्त्वयुक्तो यो न शक्तः सुविचारके । जैनधर्मबहिर्भूतो मिथ्यादृष्टिर्बुधर्मतः ॥३२ जनो वेदादियुक्तो य. कुशास्त्रादिसमन्वितः । त्यक्तसिद्धान्तसारश्च मिथ्याज्ञानी स कोर्तितः ॥३३ पञ्चाग्निसाधवो मिथ्यातपसादिकृतोद्यमः । यः शठः सोऽत्र संप्रोक्तः कुतपस्वी मनोश्वरैः ॥३४ षडनायतनं ज्ञेयं श्वभ्रतिवगातिप्रदम् । अघाकरं बुधैनिन्द्यं दर्शनस्य विनाशनम् ॥३५ सम्यक्त्वं त्वं परिज्ञाय त्यस भेदं विदूरतः । शत्रुवत्षविधं मित्र दुःखदावमहेन्धनम् ॥३६ निशङ्कितादयो ये ते प्रोक्ता अष्टौ गुणाः शुभाः । विपरीताश्च विज्ञेया दोषाः शङ्कादयो बुधैः ॥३७ आदि कलाकौशलोंका अभिमान भी नहीं करना चाहिये, क्योंकि इस विचित्र सम्यग्दर्शनके लिये उसका अभिमान भी अशुभ हो है ॥२५।। हे बुद्धिमान् ! सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान प्राप्त करने के लिये श्रेष्ठ मार्दव धर्मको स्वीकार कर अनेक दुःख और दुर्गतियोंके देनेवाले इन आठों मदोंका त्याग कर देना चाहिये ॥२६॥ जो नीच अनेक प्रकारके बुरे दुःख देनेवाले ऊपर लिखे आठों मदोंको करता है, इनका अभिमान करता है वह सम्यग्दर्शनको नष्टकर नीच गतिको प्राप्त होता है ॥२७॥ मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र और मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञानी तथा मिथ्याचारित्रको धारण करनेवाला ये छह षट् अनायतन कहलाते हैं ॥२८॥ अज्ञानी जीवोंके द्वारा जो पाप और दुःख देनेवाले कुदेव कुगुरु और कुधर्म में विश्वास किया जाता है वह मिथ्यादर्शन कहलाता है ॥२९।। मिथ्यादृष्टि जीव जो वेदशास्त्र वा स्मृतिशास्त्र आदिका पठन-पाठन करते हैं और उनके द्वारा पापोंको उत्पन्न करनेवाला ज्ञान बढ़ाते हैं चतुर पुरुष उसको मिथ्याज्ञान कहते हैं ॥३०॥ अज्ञानी जीव पंचाग्नि तपके द्वारा अथवा और भी कुतपोंके द्वारा जो कायक्लेश करते हैं उसे मिथ्याचारित्र कहते हैं ॥३१॥ जो मिथ्यादर्शन सहित है, श्रेष्ठ तत्त्वोंपर अथवा सम्यग्दर्शनपर जो कभी विचार नहीं करता और जो जैनधर्मसे बहिर्भूत है उसे विद्वान् लोग मिथ्यादृष्टी कहते हैं ॥३२॥ जो मनुष्य वेदादि कुशास्त्रोंका पठन-पाठन करता है और जिसने सिद्धान्तशास्त्रोंको सर्वथा छोड़ दिया है वह मिथ्याज्ञानी कहलाता है ।।३३।। जो मनुष्य पंचाग्नि तप तपता है अथवा और भी तपोंमें उद्यम करता है उसको मुनीश्वर लोग कुतपसी कहते हैं ॥३४॥ ये ऊपर लिखे हुए छह (मिथ्यादर्शन, मिथ्यादृष्टि, मिथ्याज्ञान, मिथ्याज्ञानी, मिथ्याचारित्र और कुतपसी) अनायतन ( जो धर्मके आयतन वा स्थान नहीं, किन्तु अधर्मके स्थान) कहलाते हैं। ये छहों अनायतन नरक और तियंच गतिके दुख देनेवाले हैं, अनेक पापोंको उत्पन्न करनेवाले हैं, निंद्य हैं और सम्यग्दर्शनको नाश करनेवाले हैं ॥३५॥ हे मित्र ! ये छहों अनायतन शत्रुके समान दुःख देनेवाले हैं और दुःख रूपी दावानलके लिये महा ईंधनके समान हैं इसलिये इनको अच्छी तरह जानकर दूरसे ही इनका त्याग कर देना चाहिये ॥३६॥ पहिले जो निःशंकित आदि सम्यग्दर्शनके आठ गुण कहे थे उन्हींके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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