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________________ ग्यारहवाँ परिच्छेद श्रेयोभिधं जिनं वन्दे लोके श्रेयोविधायकम् । वृषाकरं गुणैर्युक्तं जिनधर्मादिसिद्धये ॥१ पूर्वं गुणाष्टकस्यैव कृत्वा व्याख्यानमंशतः । इदानों दर्शनस्थैव दोषान् वक्ष्ये मलप्रदान् ॥२ गुणाष्टकेन संयुक्तं सर्वदोषपिवजितम् । सोपानं प्रथमं मुक्तेस्त्वं वत्स भज दर्शनम् ॥३ प्रभो ! ये सन्ति दोषा हि सम्यक्त्वमलहेतवे । कृपां कृत्वा मगाग्रेऽपि तांश्च सर्वान् निरूपय ॥४ शृणु त्वं शिष्य तान् दोषानेकचित्तेन मुक्तये । कथयामि महानिन्द्यान् सम्यक्त्वगुणघातकान् ॥५ मूढत्रयं भवेच्चाष्टौ सदा जात्यादिना बुधैः । षडनायतनान्यष्टौ दोषाः शङ्कादयो मताः ॥६ सम्यक्त्वमलदोषाः स्युस्त्वया पञ्चविंशतिः । दुस्त्याज्या मूढलोकानां त्याज्याः सम्यक्त्वशुद्धये ॥७ वीतरागो तिनिर्दोषाः कृष्णब्रह्मादिकोऽथवा । सदोषः पूज्यते मूढः पशुर्वा गतबुद्धिभिः ॥८ यत्परीक्षां परित्यज्य मुढभावेन प्रत्यहम् । पुण्यहेतोर्बुधस्तच्च देवमूढत्वमुच्यते ॥९ जिनसिद्धान्तसूत्रे यः उक्तो धर्मो जिनेश्वरः । पञ्चमिथ्यात्वसंलग्नै ढर्वेदादिके च ये ॥१० सद्विचारं परित्यज्य क्रियते स शठैजनैः । कथ्यते तद्बुधैर्लोके मूढत्वं समयोद्भवम् ॥११ अहिंसालक्षणोपेतो जिनोक्तो धर्म एव यः । स्नानादिभिश्च श्राद्धादौ लोकाचारेण चागतः ॥१२ जो संसारके समस्त प्राणियोंका कल्याण करनेवाले हैं, अनन्तगुणोंसे सुशोभित हैं और धर्मकी खानि हैं ऐसे श्री श्रेयांसनाथको मैं श्री जैनधर्मको सिद्धिके लिये नमस्कार करता हूँ॥१|| पहिले सम्यग्दर्शनके आठों गुणोंका व्याख्यान किया था अब सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाले उसके दोषोंको कहता हूँ ।।२।। आठों गुणोंसे परिपूर्ण और समस्त दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन ही मोक्ष महलकी पहिली सीढ़ी है, हे वत्स ! तू ऐसे ही निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण कर ॥३॥ प्रश्न-हे प्रभो ! सम्यग्दर्शनको मलिन करनेवाले वे कौनसे दोष हैं कृपाकर मेरे लिये उन सबका निरूपण कीजिये ॥४॥ उत्तर-हे वत्स! तू एकाग्र चित्त होकर सुन, मैं केवल त्याग करने के लिये सम्यग्दर्शनके गुणोंको घात करनेवाले महा निंद्य उन दोषोंको कहता हूँ॥५॥ तीन मूढता, जाति आदि आठ मद, छह अनायतन और शंका आदि आठ दोष इस प्रकार ये सम्यग्दर्शनके पच्चीस दोष कहलाते हैं। अज्ञानी लोग बड़ी कठिनतासे इनका त्याग करते हैं परन्तु सम्यग्दर्शनको शुद्ध करनेके लिये इनका त्याग कर ही देना चाहिये ॥६-७।। भगवान् वीतराग अरहन्त देव अत्यन्त निर्दोष हैं तथापि अज्ञानी लोग कृष्ण, ब्रह्मा आदि सदोष देवोंकी पूजा करते हैं, कोई कोई बुद्धिहीन तो पशुओंकी भी पूजा करते हैं। इस प्रकार विना किसी परीक्षाके वे लोग पुण्य करनेके लिये प्रतिदिन मूढ भावोंको प्राप्त होते रहते हैं इसोको विद्वान् लोग देवमूढता कहते हैं॥८-९॥ जैन शास्त्रोंमें, जैन सिद्धान्त सूत्रोंमें भगवान् जिनेन्द्रदेवने धर्मका यथार्थ स्वरूप वर्णन किया है तथापि पाँचों प्रकारके मिथ्यात्वमें लगे हुए अज्ञानी जीव वेद आदिमें कहे हुए धर्मको ही मानते हैं। वे लोग श्रेष्ठ विचारोंको छोड़कर वेदादिके कहे अनुसार चलते हैं इसीको बुद्धिमान् लोग शास्त्रमूढता वा समयमूढता कहते हैं ॥१०-११॥ भगवान् जिनेन्द्रदेवने धर्मका स्वरूप अहिंसामय बतलाया है, परन्तु अज्ञानी लोग उसपर विचार न कर स्नान श्राद्ध आदि लोकाचारको ही धर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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