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________________ श्रावकाचार-संग्रह दृष्ट्वा माहात्म्यमत्यन्तं जैनधर्मस्य तत्कृतम् । त्यक्त्वा बौद्धमतं धर्म सा जग्राह जिनोदितम् ॥६५ अन्ये चातिशयं दृष्ट्वा कृतं विद्याधरैजनाः । जैन धर्म प्रपन्ना हि त्यक्त्वा मिथ्यात्वमञ्जसा ॥६६ धन्येयमुविला राजी सम्यग्दर्शनभूषिता । प्रभावनादिसंसक्ता साऽतिलोकैः प्रशंसिता ॥६७ अन्ये ये बहवः सन्ति शासनस्य प्रभावकाः । जिनस्य चागमाद ज्ञेया भव्याः सम्यक्त्वभूषिताः ॥६८ स्ववीयं प्रकटीकृत्य ज्ञानेन तपसाथवा । मुनीश्वराः प्रकुर्वन्ति जैनधर्मप्रभावनाम् ॥६९ अनाच्छाद्य स्वशक्ति च दानपूजामहोत्सवैः । श्रावका जैनधर्मेषु व्यक्तं कुर्वन्ति प्रत्यहम् ॥७० विमलगुणनिधानः प्राप्तसंसारपारो, विगतसकलदोषः साररत्नत्रयाढयः । कृतप्रकटप्रभावो जैनधर्मस्य लोके, जयतु खलु कुमारोऽन्त्यादिवज्रो मुनीन्द्रः ॥७१ इति श्री भट्टारकसकलकीतिविरचिते प्रश्नोत्तरोपासकाचारे प्रभावनागणवर्णने वज्रकुमारमुनिकथाप्ररूपको नाम दशमः परिच्छेदः ॥१०॥ फिर जिन धर्मको प्रभावना करनेवाले उन लोगोंने बड़ी विभूतिके साथ उविलाका रथ निकलवाया जिससे अनेक लोगोंने पुण्य सम्पादन किया और नगरमें बड़ी शोभा हुई ।।६३-६४॥ राजा पूतगन्ध और बुद्धदासी दरिद्राने भी जैन धर्मका ऐसा माहात्म्य देखकर बौद्ध धर्मका त्याग कर दिया और भगवान् जिनेन्द्रदेवका कहा हुआ जैनधर्म स्वीकार कर लिया ॥६५॥ उस विद्याधरोंके द्वारा किये हुए बड़े भारी अतिशयको देखकर अनेक लोगोंने मिथ्यात्व छोड़ दिया और पवित्र जैनधर्मको स्वीकार कर लिया ॥६६|| लोगोंने रानी उर्विलाकी बड़ी प्रशंसा की और मुक्त कण्ठसे कहा कि सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाली और प्रभावना आदि सम्यक्त्वके गणोंमें आसक्त रहनेवाली इस उविला रानीको बार बार धन्य है ॥६७।। सम्यग्दर्शनसे विभषित होनेवाले और भी ऐसे अनेक भव्य हैं जिन्होंने इस जैनधर्मको प्रभावना की है उनका वर्णन जैन शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये ॥६८|| मुनिराज अपनी शक्तिको प्रकटकर ज्ञान और तपश्चरणके द्वारा इस जैनधर्मकी प्रभावना प्रगट करते हैं तथा श्रावक जन भी अपनी शक्तिको प्रकट कर दान पूजा और उत्सवों द्वारा सदा इस जैनधर्मको प्रभावना किया करते हैं ।।६९-७०|| जो अनेक निर्मल गुणोंके निधि हैं, जिन्होंने संसार में सारभूत पदार्थ सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, जो समस्त दोषोंसे रहित हैं, सारभूत रत्नत्रयसे विभूषित हैं और जिन्होंने संसारभरमें जैन धर्मका प्रभाव प्रगट किया था ऐसे मुनिराज वज्रकुमार सदा जयशील हों ।।७१।। इस प्रकार भट्टारक सकलकोति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें प्रभावना अंगमें प्रसिद्ध होनेवाले वज्रकुमारकी कथाको निरूपण करनेवाला यह दशवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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