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________________ २६१ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ततो गरुडवेगाख्यगङ्गावत्योर्गुणाकरा । पुत्री पवनवेगाख्या जाता रूपादिभुषिता ॥२५ हीमन्तपर्वते गत्वा विद्यां प्रज्ञप्तिसंज्ञिकाम् । साधयन्ती श्रमेणव स्वयमेकाग्रचेतसा ॥२६ दाताकम्पितवदरोकण्टकेनैव लोचने । विद्धा तत्पीडया जाता चलचित्ता नभेश्वरी॥२७ नैव सिद्धयति सा विद्या स्वविज्ञानबलेन सा । दृष्ट्वा वनकुमारेण स्वयं कण्टक उद्धृतः ॥२८ ततः सुस्थिरचित्तायास्तस्या सिद्धि गता पुनः । विद्या कार्यकरा पुण्यप्रभावेनैव तत्क्षणम् ॥२९ उक्तं तया ममैषापि विद्या भो भव्य साम्प्रतम् । सिद्धा भवत्प्रसादेन भर्ता त्वं मे न चापरः ॥३० महोत्सवेन सा वज्रकुमारेणैव तत्क्षणम् । परिणीता स्वपुण्येन किं किं न स्यान्महीतले ॥३१ तद्विद्यामाशु चादाय गत्वा तेनामरावतीम । पितव्यं सङ्गरे जित्वा राज्ये संस्थापितः पिता ॥३२ एकदा तस्य धीरस्य जनन्यापि जयरिया। अमषं प्रोद्वहन्त्या स्वपत्रस्य राज्यहेतवे ॥३३ प्रोक्तमन्येन सञ्जातश्चान्यं सन्तापयत्ययम् । श्रत्वा तद्वचनं सोऽपि पितपार्वे समाययौ ॥३४ भो तात ! कस्य पुत्रोऽहं सत्यं त्वं कथयेति मे। तस्मिन्प्ररूपितेनादौ प्रवृत्ति न चान्यथा ॥३५ ततस्तेन खगेशेन सत्यमेव निरूपितः । वृत्तान्तः पूर्वजः सर्वस्तस्थाने मायया विना ॥३६ तदाकण्यं ततो द्रष्टुं स्वगुरु बन्धुभिः समम् । मथुरां सक्षत्रियाख्या गुहां सद्भक्तितो ययौ ॥३७ गुरुं नत्वा स्थितस्तत्र कुमारः कथितोऽमुना । दिवाकरादिदेवेन वृत्तान्तः पुत्रसम्भवः ॥३८ शोभा देखने के लिए होमंत पर्वतपर गया था। वहाँपर गरुड़वेग विद्याधरकी स्त्री गंगावतीकी पुत्री पवनवेगा प्रज्ञप्ति नामकी विद्याको सिद्ध कर रही थी। वह पवनवेगा बड़ी गुणवती थी, बड़ी ही रूपवती थी और उस समय एकाग्रचित्त होकर बड़े परिश्रमसे विद्या सिद्ध कर रही थी। दैवयोगसे उसी समय वायुसे उड़कर एक वेरका कांटा उसकी आँखमें पड़ गया था और उसकी पीड़ासे उसका चित्त चञ्चल हो उठा था। तथा चित्तके चंचल होनेसे वह विद्या सिद्ध नहीं हो रही थी। वज्रकुमारने अपने विज्ञानबलसे वह कांटा देख लिया था और पास जाकर स्वयं अपने हाथसे उसे निकाल डाला था ॥२५-२८॥ काटेके निकल जानेसे उसका चित्त स्थिर हो गया और चित्तके स्थिर हो जानेसे तथा पुण्यके प्रभावसे उस विद्याधर पुत्रीको अनेक कार्य करनेवाली विद्या स्वयं आकर सिद्ध हो गई ॥२९॥ विद्या सिद्ध हो जानेपर उस विद्याधरपुत्रीने वज्रकुमारसे कहा कि हे स्वामिन् ! मुझे यह विद्या आपके प्रसादसे सिद्ध हुई है इसलिये इस जन्ममें मेरे पति आप ही हैं अब मैं और किसीको स्वीकार कर नहीं सकती ॥३०।। तदनन्तर माता-पिताकी आज्ञासे उन दोनोंका विवाह हो गया सो ठीक ही है, क्योंकि इस संसारमें पुण्योदयसे क्या-क्या प्राप्त नहीं होता है ॥३१|| किसी एक दिन मालूम हो जानेपर वज्रकुमार अपनी स्त्रोको विद्या लेकर और कुछ सेना लेकर अमरावतीपर चढ़ गया और अपने काकाको जीतकर अपने पिताको राज्यगहो पर बिठाया ॥३२॥ किसी एक दिन वज्रकूमारकी माता जयश्री (दिवाकरदेवकी रानी) अपने निजी पुत्रको राज्य दिलानेके लिये वज्रकुमारसे कुछ ईर्षाक वचन कह रही थी और कह रही थी कि यह वज्रकुमार कहाँ तो उत्पन्न हुआ है और कहाँ आकर हम लोगोंको दुःखी करता है। अपनी माताकी यह बात सुनकर वज्रकुमार उसी समय अपने पिताके पास पहुँचा ॥३३-३४॥ और कहने लगा कि हे तात ! आज सच बतला दीजिए कि मैं किसका पुत्र हूँ। आज यह बात जान लेनेपर ही में अन्नपानी ग्रहण करूंगा, अन्यथा नहीं ॥३५॥ पुत्रके अत्याग्रहसे दिवाकरदेव विद्याधरने भी पहला सब हाल ज्योंका त्यों कह सुनाया ॥३६॥ उस कथाको सुनकर वजकुमार अपने पूज्य पिताके दर्शन करनेके लिये पिता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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