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श्रावकाचार-संग्रह ससारं तमसारं च दारापुत्रधनादिकम् । अध्रुवं जीवितव्यं च मत्वा जग्राह संयमम् ॥१३ परिज्ञायागमं सोऽपि ज्ञानध्यानतपोरतः । गत्वा नाभिगिरौ सूर्यसम्मुखः संस्थिता मुनिः ॥१४ यज्ञदत्ता प्रसूता सा पुत्रं श्रुत्वा स्वभर्तृजम् । वृत्तान्तं कोपसम्पन्ना गता स्वबान्धवान्तिकम् ॥१५ मुनेः शुद्धि परिज्ञाय गत्वा नाभिगिरौ सह । बन्धुभिस्त्यक्तदेहोऽसौ यतिर्दृष्टोऽचलस्तया ॥१६ कोपाद्धृत्वा स्वबालं तत्पादोपरि कुमार्गगा। दत्वा दुर्वचनान्यस्य मुनेगेंहं गता हि सा ॥१७ मुनिस्तथैव ध्यानेन स्थितः एकाग्रमानसः । सर्वचिन्तादिनिर्मुक्तः त्यक्तसर्वपरिग्रहः ॥१८ तस्मिन्नेव हि प्रस्तावे वसन् रूप्याचले शुभे । नगर्याममरावत्यामाकरायां सुर्धामणाम् ॥१९ दिवाकरादिदेवान्तनामा विद्याधराधिपः । पुरन्दरलधुभ्रात्रा पुर्यान्निर्घाटिता बलात् ॥२० इदं पापफलं मत्वा सद्राज्यादिविनाशनम् । वन्दनार्थं समायातः सकलत्रो मुनेः स वै ॥२१ प्रणम्य मुनिनाथं तं दृष्ट्वा तच्चरणे स्थितम् । गृहीत्वा बालकं कान्तं स्वभार्याय समर्प्य सः ॥२२ नाम वज्रकुमारोऽयमिति कृत्वा पुनः स्वयम् । कनकाख्यं पुरं रम्यं धर्महर्षान्वितो ययौ ॥२३ तत्र वज्रकुमारश्च जातो विद्यान्वितो युवा । विमलादिवाहनान्तस्वमैथुनिकसन्निधौ ॥२४
तथा स्वर्ग मोक्ष प्राप्त करा देनेवाले धर्मका स्वरूप सुना। उसे सुनते ही उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया ॥१२॥ उसने इस संसारको असार समझा और स्त्री पुत्र धन जीवन आदिको अनित्य निश्चय कर उसने संयम धारण कर लिया ॥१३।। मुनिराज सोमदत्तने अनेक शास्त्रोंका अभ्यास किया और ज्ञान ध्यानमें तल्लोन होनेका अभ्यास किया। किसी एक समय वे नाभिगिरि पर्वतपर तपश्चरण करनेके लिये सूर्यके सामने जा विराजमान हुए ॥१४॥
इधर समय पाकर यज्ञदत्ताके पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके कुछ दिन बाद उसने अपने पतिका समाचार भी सुना। उसके मुनि होनेका समाचार सुनकर उसे बहुत ही क्रोध आया और भाई आदिको साथ लेकर वह नाभिगिरि पर्वतपर पहुँची ।।१५।। वहाँ जाकर देखा शरीरसे ममत्व छोड़े हुए पर्वतके समान अचल, सूर्य के सामने विराजमान होकर तप कर रहे हैं ॥१६॥ उस दुष्टाने उन मुनिराजको अनेक दुर्वचन कहे और क्रोधमें आकर उस बालकको उन मुनिराजके पैरोंपर डालकर अपने घरको चली गई ॥१७॥ परन्तु समस्त परिग्रहोंका त्याग कर देनेवाले और सब तरहकी चिन्ताओंसे रहित वे मुनिराज उसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर ध्यान में तल्लीन रहे ॥१८॥ इसी समयकी एक कथा और है और वह इस प्रकार है कि विजयार्द्ध पर्वतपर एक अमरावती नामको नगरी है जिसमें अनेक धर्मात्मा लोग निवास करते थे ॥१९॥ उस नगरीमें दिवाकरदेव नामका विद्याधर राज्य करता था। उसके छोटे भाईका नाम पुरन्दर था। पुरन्दरने अपने बलसे अपने बड़े भाईको नगरसे निकाल दिया था और उसका राज्य स्वयं ले लिया था ॥२०॥ दवाकरदेवने अपने राज्यका नाश होना पापका फल समझा इसलिये वह अपनी स्त्रीको साथ लेकर मुनियोंकी वन्दना करनेके लिये निकला ॥२१|| वह चलता-चलता नाभिगिरि पर्वतपर आया और मुनिराजको नमस्कार कर बैठ गया। उसने उनके चरणोंपर पड़े हुए सुन्दर बालकको देखा और उसे उठाकर अपनी स्त्रीको सौंप दिया ।।२२।। दिवाकरदेवने उसका नाम वज्रकुमार रक्खा और वह मुनिराजके दर्शन कर बड़ी प्रसन्नताके साथ कनकपुरको चला ॥२३।। वहांपर वज्रकुमार का मामा (दिवाकरदेवका साला) विमलवाहन राज्य करता था । वह विमलवाहन बहुत ही विद्वान् था। उसीके पास रहकर बजकुमारने अनेक विद्याएं सीखीं ॥२४॥ किसी एक दिन वज्रकुमार
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