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________________ २६२ श्रावकाचार-संग्रह तच्छु त्वा मुनिना ब्रूतं पुत्र दीक्षां गृहाण भो। हत्वा मोहमहामल्लं स्वर्गमुक्तिसुखप्रदम् ॥३९ आकर्ण्य तद्वचो वज्रकुमारः सर्वबान्धवान् । महत्कष्टेन संत्यक्त्वा व्रतमङ्गीचकार सः ॥४० अत्रान्तरे मथुरायां पूतिगन्धो नृपोऽभवत् । उविला तस्य सद्राज्ञी बभूव धर्मतत्परा ॥४१ सम्यक्त्वादिगुणोपेता रता धर्ममहोत्सवे । प्रभावनादिसंयुक्ता भक्ता श्रीजिनपुङ्गवे ॥४२ करोति रथयात्रां सा प्रतिवर्ष दिनाष्टकम् । नन्दीश्वरे त्रिवारं सद्रथे प्रारोप्य श्रीजिनम् ॥४३ तत्रैव सन्नगर्यां च दरिद्राख्या सुताऽजनि । श्रेष्ठिसागरदत्तस्य धनहीनस्य पापतः ॥४४ बेष्ठिन्या हि समुद्रादिदत्ताया उदरे शुभे । मृते सागरदत्ते सा क्षुधाक्रान्ता बहिर्गता॥४५ भक्षयन्ती कुसिक्तानि परगेहे विरूपिका । दृष्टा चर्याप्रविष्टेन मुनियुग्मेन सा स्वयम् ॥४६ लघुना मुनिना प्रोक्तं हा बराको हि जीवति । कष्टेन महता नित्यं पूर्वोपाजतपापतः ॥४७ तदाकर्ण्य पूनः प्रोक्तं ज्येष्ठेन मुनिना स्वयम । इह अस्य ध्रवं राज्ञः पटराज्ञी भविष्यति ॥४८ वचस्तस्य समाकर्ण्य धर्मश्रीवन्दकेन भो । मत्वेति भ्रमता भिक्षां नान्यथा मुनिभाषितम् ॥ ४९ शीघ्रण स्वमळं सा च नोता संपोषिता पुनः । मिष्टाहारैश्च संप्राप्ता यौवनं रूपसम्पदम् ॥५० भाई आदि सबके साथ निकला। उस सयय उसके पिता श्री सोमदत्त मुनिराज मथुरा नगरीमें एक क्षत्रिय नामकी गुफामें तपश्चरण कर रहे थे। वज्रकुमार भक्तिपूर्वक वहीं पहुंचा ॥३७॥ सब लोग मुनिराजको नमस्कारकर बैठ गये। तब दिवाकरदेवने उन मुनिराजसे उस वज्रकुमार पुत्रके होनेकी सब कथा कह सुनाई ॥३८॥ यह सुनकर मुनिराज वज्रकुमारसे कहने लगे कि हे पुत्र! मोहरूपी महा मल्लको नाशकर स्वर्ग मोक्षके सुख देनेवाली दीक्षा ग्रहण कर ॥३९॥ मुनिराजके वचन सुनकर वज्रकुमारने भी सब कुटुम्बका त्याग किया और अपने पूज्य पितासे दीक्षा धारण की ॥४०॥ इधर मथुरा नगरमें राजा पूतिगन्ध राज्य करता था। उसकी रानीका नाम उविला था जो रानी सदा धर्ममें तत्पर रहती थी ॥४१॥ वह रानो सम्यग्दर्शन गुणसे सुशोभित थी, धर्मोत्सव करने में तत्पर थो, प्रभावना अंगको पालन करने में चतुर थी और जिनेन्द्रदेवमें परम भक्ति रखतो थी ॥४२॥ वह प्रत्येक नन्दीश्वर पर्वमें श्रेष्ठ रथमें भगवान् जिनेंद्रदेवको विराजमानकर आठ दिनतक बराबर रथयात्रा करती थी और इस प्रकार प्रत्येक वर्ष में तीन बार किया करती थी ॥४३।। उसी मथुरा नगरीमें सेठ सागरदत्तकी सेठानी समुद्रदत्ताके उदरसे एक दरिद्रा नामकी पुत्री हुई थी। उसके होते ही पापकर्मके उदयसे उस सेठका सब धन नष्ट हो गया था और माता पिता भी मर गये थे । तब वह दरिद्रा अकेली इधर-उधर फिरा करती थी और दूसरोंके घर जूठा और बुरा अन्न खाया करती थी। किसी एक दिन उस नगरीमें दो मुनिराज पधारे। उनमेंसे छोटे मुनिने उस दरिद्राको देखकर बड़े मुनिसे कहा कि देखो, पहिले जन्ममें उपार्जन किये हुए पापकर्मके उदयसे यह दरिद्रा बड़े कष्टसे अपना जीवन बिता रही है ।।४४-४७|| छोटे मुनिकी यह बात सुनकर बड़े मुनिने कहा कि कालान्तरमें यह यहाँके इसी राजाकी पट्टरानी होगी ॥४८|| मुनिराजको यह बात एक बौद्ध भिक्षुक धर्मश्री वंदकने भी सुन ली। उस समय वह भी भिक्षाके लिये आया था। उसने यह बात सुनकर निश्चय कर लिया कि मुनिराजकी बात कभी मिथ्या नहीं होती है ।।४९।। वह वन्दक शोघ्र ही उसे अपने मठमें ले गया और उसे मीठे मीठे आहार खिला कर सन्तुष्ट किया । अनुक्रमसे वह दरिद्रा यौवनरूपी सम्पदाको प्राप्त हो गई ॥५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
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