SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ श्रावकाचार-संग्रह कृत्वा तेभ्यो नमस्कारं जाता सच्छ्रावकाः शुभात् । चत्वारो जैनधर्मस्य दृष्ट्वा माहात्म्यमीदृशम् ६३ धन्यो विष्णुकुमारोऽयं सद्वात्सल्यगुणान्वितः । येन सद्योगिनां साक्षादुपसर्गो निवारितः ॥६४ बन्ये ये बहवः सन्ति सद्वात्सल्यविधायकाः । ते श्रीरामादयो ज्ञेया दक्षैः सच्छ्रीजिनागमात् ॥६५ सद्वात्सल्यं प्रकर्तव्यं त्वया धीमन् सुखावहम् । यतीनां श्रावकाणां च यथायोग्यं सुधर्मदम् ॥ ६६ ये वात्सल्यं न कुर्वन्ति मूढा गर्वसमन्विताः । पतित्वा धर्मशैलाते मज्जन्ति भवसागरे ॥६७ गुणान्वितं मुनि दृष्ट्वा ये वात्सल्यं भजन्ति न । गर्वात्ते स्वं परित्यज्य धर्म श्वभ्रे पतन्त्यधात् ॥६८ प्रकुर्वन्ति मुनीनां ये वात्सल्यं धर्महेतवे । ते शक्रादिपदं लब्धा मुक्ति गच्छन्ति संयताः ॥६९ कलित विविधऋद्धिविष्णुसंज्ञं मुनीन्द्रं, विघृतगुणगरिष्ठं सप्तमं दर्शनस्य । गतशिव सुखपारं त्यक्तसंसारभारं, भवजलनिधिपोतं मुक्तयेऽहं प्रवन्दे ||७० इति श्रीभट्टारकसकलकीर्तिविरचिते प्रश्नोत्तरश्रावकाचारे वात्सल्यगुणव्यावर्णनो विष्णुकुमार कथानिरूपको नाम नवमः परिच्छेदः ||९|| पड़े ॥६२॥| उन्होंने उन सबको नमस्कार किया और जैनधर्मका ऐसा माहात्म्य देखकर वे चारों मंत्री अच्छे श्रावक बन गये || ६३ || इस संसार में विष्णुकुमार मुनिराज बड़े ही धन्य हैं । उनका वात्सल्य अंग बहुत ही प्रशंसनीय है क्योंकि मुनियोंका साक्षात् उपसर्ग उन्होंने स्वयं दूर किया था || ६४ || इनके सिवाय रामचन्द्र आदि और भी बहुतसे महापुरुष इस वात्सल्य गुणको धारण करनेवाले हुए हैं उन सबके जीवनचरित्र श्री जैन शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये ||६५ || हे वत्स ! हे बुद्धिमान ! यह वात्सल्य गुण सदा सुख देनेवाला है और धर्मको बढ़ानेवाला है इसलिये यथायोग्य रीतिसे मुनि और श्रावकोंमें सदा वात्सल्य धारण करना चाहिये || ६६ || जो अभिमानी मूर्ख धर्मात्माओं में प्रेम नहीं करते हैं वे धर्मरूपी पर्वतसे गिरकर संसाररूपी समुद्रमें डूब जाते हैं ॥६७॥ जो अभिमानी गुणवान् मुनिको देखकर भी उनमें प्रेम नहीं करते हैं अपना उत्कृष्ट धर्म छोड़कर नरकमें पड़ते हैं || ६८ || जो संयमी पुरुष केवल धर्म- पालन करनेके लिये मुनियोंमें प्रेम करते हैं वे इन्द्रादिकके पदको पाकर अवश्य ही मोक्षमें जा विराजमान होते हैं ||६९ || जिन मुनिराज विष्णुकुमारको अनेक ऋद्धियां प्राप्त हुई थीं, जिन्होंने सम्यग्दर्शनका सातवाँ उत्तम वात्सल्य अंग धारण किया था, जो संसारके भारको छोड़कर मोक्षसुखके पारगामी हुए थे और जो संसाररूपी महासागरसे पार कर देनेके लिये जहाजके समान हैं उन्हें में मोक्ष प्राप्त करने के लिये नमस्कार करता हूँ ॥७०॥ इस प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति विरचित प्रश्नोत्तरश्रावकाचारमें वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध होनेवाले विष्णुकुमार मुनिराजकी कथाको कहनेवाला यह नौवां परिच्छेद समाप्त हुआ ||९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001552
Book TitleShravakachar Sangraha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy